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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

इतने में बिहारी आ गया। उसे देखते ही महेंद्र के मन की उमंग दुगुनी हो गई। अब तक संदेहों के चलते बिहारी से उसे ईर्ष्या होती रही थी और दोनों में गाँठ पड़ती जा रही थी। चिट्ठी पढ़ने के बाद और ज्यादा आवेग में उसने उसकी आगवानी की।

लेकिन बिहारी का चेहरा आज उतरा हुआ था। महेंद्र ने सोचा, 'बेचारे ने इस बीच विनोदिनी से जरूर मुलाकात की होगी और वहाँ से ठोकर खा कर आया है!' उसने पूछा - 'क्यों भाई, इस बीच मेरे घर गए थे कभी?'

बिहारी ने कहा - 'वहीं से हो कर आ रहा हूँ अभी।'

मन-ही-मन बिहारी की पीड़ा का अनुमान करके महेंद्र को अच्छा न लगा। उसने मन में कहा - 'अभागा! किसी महिला ने कभी उसे नहीं चाहा।' फिर भी उसने बातचीत शुरू करते हुए पूछा - 'कैसे हैं सब?'

इस बात का जवाब देने के बजाय वह बोला - 'घर छोड़ कर अचानक यहाँ!'

महेंद्र ने कहा - 'इधर लगातार नाइट-डयूटी पड़ रही है - वहाँ दिक्कत हो रही थी।'

बिहारी बोला - 'नाइट-डयूटी तो इसके पहले भी पड़ी है, मगर घर छोड़ते तो नहीं देखा कभी?'

महेंद्र ने हँस कर कहा - 'क्यों, कोई शक हो रहा है।'

बिहारी बोला - 'मजाक न करो। तुम्हें कहीं नहीं रहना है। चलो इसी वक्त घर चलो।'

घर जाने को तो वह तैयार ही बैठा था; मगर बिहारी ने आग्रह किया तो वह मना कर गया, गोया घर जाने की उसे जरा भी इच्छा नहीं। बोला - 'पागल हुए हो, मेरे एक साल पर पानी फिर जाएगा।'

बिहारी ने कहा - 'देखो महेंद्र भैया, मैं तुम्हें तब से देखता आया हूँ, जब तुम छोटे-से थे। मुझे फुसलाने की कोशिश न करो! तुम जुल्म कर रहे हो।'

महेंद्र - 'जुल्म कर रहा हूँ, किस पर, जज साहब!'

बिहारी नाराज हो कर बोला - 'तुम सदा दिल की तारीफ करते आए हो, अब तुम्हारा दिल कहाँ गया?'

महेंद्र - 'फिलहाल तो अस्पताल में है।'

बिहारी - 'चुप रहो! तुम यहाँ हँस-हँस कर मुझसे मजाक कर रहे हो और वहाँ तुम्हारी आशा तुम्हारे कमरों में रोती फिर रही है।'

आशा के रोने की बात सुन कर अचानक महेंद्र को धक्का लगा। अपने नए नशे में उसे इसकी सुध न थी कि दुनिया में और भी किसी का सुख-दु:ख है। वह चौंका! पूछा - 'आशा क्यों रो रही है?'

बिहारी ने अपनी आँखों जो कुछ देखा, आदि से अंत तक कह सुनाया। उसे याद आ गया कैसे विनोदिनी से लिपट कर आशा की आँखें बह रही थीं। उसका गला रुँध गया। महेंद्र को खूब पता था कि आशा का मन वास्तव में किधर है!

महेन्द्र बोला - 'खैर चलो। गाड़ी बुला लो!'

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