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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

21

इस बीच और एक चिट्ठी आ पहुँची -

'तुमने मेरे पत्र का जवाब नहीं दिया? अच्छा ही किया, सही बात लिखी तो नहीं जाती; तुम्हारा जो जवाब है, उसे मैंने मन में समझ लिया। भक्त जब अपने देवता को पुकारता है तो देवता क्या जबान से कुछ कहते हैं? लगता है, दुखिया की तुलसी को चरणों में जगह मिल गई।'

'लेकिन भक्त की पूजा से कहीं शिव की तपस्या टूटती हो तो मेरे हृदय के देवता, नाराज न होना! वरदान दो या न दो, आँखें उठा कर निहारो या न निहारो, जान सको या न जान सको - पूजा किए बिना भक्त की दूसरी गति नहीं। इसलिए आज भी दो पंक्तियाँ लिख भेजती हूँ - हे मेरे पत्थर के देवता! तुम अडिग ही रहो!'

महेंद्र फिर जवाब लिखने बैठा। लेकिन पत्र को आशा को लिखते हुए कलम की नोक पर जवाब विनोदिनी का आ जाता। चालाकी से इधर-उधर की हाँकते उससे लिखते हुए नहीं बनता। लिख-लिख कर बहुत-से पन्ने फाड़ डाले। एक लिखा भी गया तो उसे लिफाफे में भर कर आशा का नाम लिखते हुए अचानक किसी ने उसकी पीठ पर चाबुक जमाया- 'बेईमान! विश्वस्त बालिका से इस तरह दगा!' महेंद्र ने पत्र को टुकड़े करके फेंक दिया और बाकी रात मेज पर दोनों हथेलियों में मुँह छिपाए अपने को मानो अपनी ही नजर से छिपाने की कोशिश करता रहा।

तीसरा पत्र! 'रूठना जो कतई नहीं जानता, वह भी क्या प्यार करता है? अपने प्यार को अनादर और अपमान से बचाए न रख सकूँ तो वह तुम्हें दूँगी कैसे?'

'शायद तुम्हारे मन को ठीक-ठीक समझ नहीं पाई हूँ, तभी इतनी हिम्मत कर सकी हूँ। तुम छोड़ गए तो भी मैंने ही बढ़ कर चिट्ठी लिखी; जब तुम चुप हो गए थे, तब भी मन की कह गई हूँ। मगर तुम्हारे साथ अगर गलती की है, तो वह भी क्या मेरा ही कसूर है? शुरू से आखिर तक सारी बातें एक बार दुहरा कर देखो तो सही कि मैंने जो कुछ समझा था, वह तुम्हीं ने नहीं समझाया क्या?

'चाहे जो हो, गलत हो या सही, जो लिखा है, वह मिटने का नहीं, जो दिया है, वह वापिस नहीं ले सकूँगी, यही शिकायत है। छि:-छि: ऐसी शर्म भी नारी के नसीब में आती है। लेकिन इससे यह हर्गिज न समझना कि जो प्यार करती है, वह अपने प्यार को बार-बार अपमानित कर सकती है। साफ बताओ कि मेरी चिट्ठी की चाहत नहीं हो तो बताओ और इसका जवाब न मिला तो यहीं तक बस।'

महेंद्र से और न रहा गया। मन में बोला - 'खूब नाराज हो कर ही घर लौट रहा हूँ। विनोदिनी का खयाल है, मैं उसे भूलने के लिए घर से भाग खड़ा हुआ हूँ।' उसकी इस हेकड़ी को भुलाने के लिए ही महेंद्र ने उसी दम घर लौट जाने का संकल्प किया।

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