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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

'नाथ, तुमने मुझे प्यार किया था, यह क्या मेरा ही कसूर था! ऐसे सौभाग्य की मैंने स्वप्न में भी आशा की थी क्या? मैं कहाँ से आई, मुझे कौन जानता था? मुझे नजर उठा कर न देखा होता, मुझे अगर यहाँ मुफ्त की बाँदी बन कर रहना होता, तो मैं क्या तुम्हें दोष दे सकती थी? जाने मेरे किस गुण पर तुम खुद ही बिना मेघ के बिजली ही कड़की, तो उस बिजली ने सिर्फ जलाया ही क्यों? तन-मन को बिलकुल राख क्यों न कर डाला?

'इन दो दिनों में बेहद सब्र किया, बहुत सोचती रही, लेकिन एक बात न समझ सकी कि यहाँ रह कर भी क्या तुम मुझे ठुकरा नहीं सकते थे? मेरे लिए भी क्या घर छोड़ कर जाने की जरूरत थी? क्या मैं तुम्हें इतना घेरे हूँ? मुझे अपने कमरे के कोने में, दरवाजे के बाहर फेंक देने पर भी क्या मैं तुम्हारी नजर में आती? यही था, तो तुम फिर गए क्यों? मेरे कहीं जाने का क्या कोई उपाय न था? बह कर आई थी, बह कर चली जाती...'

यह चिट्ठी कैसी! भाषा किसकी थी, महेंद्र को समझते देर न लगी। महेंद्र उस पत्र को लिए स्तंभित रहा।

बड़ी देर तक सोचता रहा। खत को उसने कई बार पढ़ा। कुछ दिनों तक जो दूर के आभास की तरह रहा, आज वह साफ प्रकट होने लगा। उसकी जिंदगी के आसमान के एक कोने में जो धूमकेतु छाया था, आज उसकी उठी हुई पूँछ आग की रेखाओं में जलती हुई दिखाई पड़ी।

चिट्ठी यह असल में विनोदिनी की है। भोली आशा ने इसे अपनी बात समझ कर लिखा है। पहले जिन बातों को उसने कभी सोचा नहीं, विनोदिनी के लिखाने से वे ही बातें उसके मन में जाग उठीं। जो नई वेदना पैदा हुई, उसे इस खूबी के साथ आशा तो हर्गिज जाहिर नहीं कर सकती थी। वह सोचने लगी, 'सखी ने मेरे मन की बात को ऐसा ठीक-ठीक कैसे समझ लिया! और, इतना ठीक से जाहिर कैसे किया!' वह अपनी अंतरंग सखी को और भी मजबूत सहारे की तरह पकड़ बैठी। क्योंकि जो बात उसके मन में है, उसकी भाषा उसकी सखी के पास है - इतनी बेबस थी वह!

महेंद्र कुर्सी से उठा। भवों पर बल डाला। विनोदिनी पर क्रोध करने की कोशिश की। मगर बीच में आशा पर गुस्सा आ गया। आशा की मूर्खता तो देखो, पति पर यह कैसा जुल्म! वह फिर बैठ गया और इस बात के सबूत में उस खत को फिर से पढ़ गया। अंदर-ही-अंदर खुशी होने लगी। यह समझ कर उसने चिट्ठी को पढ़ने की बहुत चेष्टा की, मानो वह आशा की ही लिखी हो। लेकिन इसकी भाषा किसी भी तरह से भोली आशा की याद नहीं दिलाती। दो ही चार पंक्तियाँ पढ़ते ही सुख से पागल कर देने वाली एक झाग भरी शराब-जैसा संदेह मन को ढाँप लेता। प्रेम की इस प्रतीति ने महेंद्र को मतवाला बना दिया। उसे लगने लगा चाहे खुद के प्रति हिंसा करके ही मन को किसी और तरफ लगा दे। उसने मेज पर जोरों का मुक्का मारा और उछल कर खड़ा हो गया। बोला - 'हटाओ, चिट्ठी को जला डालें।' चिट्ठी को वह लैंप के करीब ले गया। जलाया नहीं, फिर एक बार पढ़ गया। अगले दिन नौकर कागज की बहुत-सी राख उठा ले गया था, लेकिन यह राख आशा की चिट्ठियों की न थी, उसके उत्तर की कई अधूरी कोशिशों की राख थी, जिन्हें अंत में महेंद्र ने जला दिया था।

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