उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र चौंकते मगर अपने पर नियंत्रण करते हुए उसने पूछा - 'क्यों माँ?'
'बेटा, वह तो अबकी बार अपने घर जाने के लिए अड़ गई है। तुझे तो किसी की खातिरदारी आती नहीं। एक पराई लड़की अपने घर आई है, उसका अगर घर के लोगों-जैसा आदर-मान न हो तो रहे कैसे?'
विनोदिनी सोने के कमरे में चादर सी रही थी। महेंद्र गया। आवाज दी - 'किरकिरी!' विनोदिनी सम्हलकर बैठी। पूछा - 'जी! महेंद्र बाबू!'
महेंद्र बाबू ने कहा - 'अजीब मुसीबत है! ये हजरत महेंद्र बाबू कब से हो गए!'
अपनी सिलाई में आँखें गड़ाए हुए ही विनोदिनी बोली - 'फिर क्या कह कर पुकारूँ आपको?'
महेंद्र ने कहा - 'जिस नाम से अपनी सखी को पुकारती हो- 'आँख की किरकिरी'!'
और दिन की तरह विनोदिनी ने मजाक करके कोई जवाब न दिया। वह अपनी सिलाई में लगी रही।
महेंद्र ने कहा - 'लगता है, वही सच्चा रिश्ता है, तभी तो दुबारा जुड़ पा रहा है।'
विनोदिनी जरा रुकी। सिलाई के किनारे से बढ़ रहे धागे के छोर को दाँतों से काटती हुई बोली - 'मुझे क्या पता, आप जानें!'
और दूसरे जवाबों को टाल कर गंभीरता से पूछ बैठी- 'कॉलेज से एकाएक कैसे लौट आए।'
महेंद्र बोला - 'केवल लाश की चीर-फाड़ से कब तक चलेगा?'
विनोदिनी ने फिर दाँत से सूत काटा और उसी तरह सिर झुकाए हुए बोली- 'तो अब जीवन की जरूरत है?'
महेंद्र ने सोचा था, आज विनोदिनी से बड़े सहज ढंग से हँसी-मजाक करूँगा लेकिन बोझ इतना हो गया कि लाख कोशिश करके भी हल्का जवाब जुबान पर न आ सका। विनोदिनी आज कैसी दूरी रख कर चल रही है, यह देख कर महेंद्र उद्वेलित हो गया। इच्छा होने लगी, एक झटके से इस रुकावट को मटियामेट कर दे। उसने विनोदिनी की काटी हुई वाक्य-चिकोटी का कोई जवाब न दिया-अचानक उसके पास जा बैठा। बोला- 'तुम हम लोगों को छोड़ कर जा क्यों रही हो? कोई अपराध हो गया है मुझसे!' विनोदिनी इस पर जरा खिसक गई। सिलाई से सिर उठा कर उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें महेंद्र की ओर लगा कर कहा - 'काम-धन्धा तो हर किसी को है। आप सब छोड़ कर कहीं और रहने चले दिए। वह क्या किसी अपराध से कम है।'
महेंद्र को कोई अच्छा जवाब ढूँढ़े न मिला। जरा देर चुप रह कर पूछा - 'ऐसा क्या काम पड़ा है कि गए बिना होगा ही नहीं?'
बड़ी सावधानी से सुई में धागा डालती हुई वह बोली -'काम है या नहीं, यह मैं ही जानती हूँ। आपको उसकी फेहरिस्त क्या दूँ!'
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