उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
|
10 पाठकों को प्रिय 103 पाठक हैं |
नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र ने पूछा - 'आखिर किस गुनाह के लिए उसे इतनी बड़ी सजा?'
आशा बोली - 'मुझे गुस्सा आ गया है- तुमसे मुलाकात करने में भी आपत्ति! उसकी अकड़ तोड़ कर ही रहूँगी।'
महेंद्र बोला - 'तुम्हारी प्यारी सखी को देखे बिना मैं मरा नहीं जा रहा हूँ। मैं यों चोरों की तरह मिलना नहीं चाहता।'
आशा ने महेंद्र का हाथ पकड़ कर विनती की- 'मेरे सिर की कसम तुम्हें, एक बार, बस एक बार तो तुम्हें यह करना ही पड़ेगा। जैसे भी हो, उसकी हेकड़ी तो भुलानी ही पड़ेगी। फिर तुम्हारा जैसा जी चाहे करना।'
महेंद्र चुप रहा। आशा बोली-'मेरी आरजू है, मान जाओ!'
महेंद्र को भी ललक हो रही थी। इसीलिए बेहद उदासी दिखा कर वह सहमत हुआ।
शरत की धुली दोपहरी। महेंद्र के कमरे में विनोदिनी आशा को कार्पेट के जूते बनाना बता रही थी। आशा अनमनी-सी बार-बार बाहर ताक-ताक कर गिनती में भूल करके अपना बेहद सीधापन दिखा रही थी।
आखिर तंग आ कर विनोदिनी ने उसके हाथ का कार्पेट झपट कर गिरा दिया और कहा - 'यह तुम्हारे बस का नहीं, मैं चलती हूँ, काम पड़ा है।'
आशा ने कहा - 'बस, जरा देर और देखो, अब भूल नहीं होगी।'
आशा सीने से लग गई।
इतने में दबे पाँव महेंद्र आया और दरवाजे के पास विनोदिनी के पीछे खड़ा हो गया। आशा सिलाई पर आँखें गाड़े हुए ही धीरे-धीरे हँसने लगी।
विनोदिनी ने पूछा - 'एकाएक हँसी किस बात पर आ गई?'
आशा से और न रहा गया। वह खिलखिला पड़ी और विनोदिनी के बदन पर कार्पेट फेंक कर बोली, 'तुमने ठीक ही कहा, यह मेरे बस का नहीं।' और विनोदिनी से लिपट कर और जोर से हँसने लगी।
विनोदिनी पहले ही ताड़ गई थी। आशा की चंचलता और हाव-भाव से उससे छिपा कुछ न था। वह यह भी खूब जान गई थी कि महेंद्र कब चुपचाप उसके पीछे आ कर खड़ा हो गया। निरी नादान बन कर उसने अपने को आशा के आसान जाल में फँसने दिया।
अंदर आते हुए महेंद्र ने कहा - 'मैं बदनसीब ही इस हँसी से क्यों वंचित हूँ।'
|