उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
चौंक कर विनोदिनी ने माथे पर कपड़े का पल्ला डाला और उठने लगी। आशा ने उसका हाथ धर दबाया।
महेंद्र ने कहा - 'या तो आप बैठिए, मैं चला जाता हूँ, या फिर आप भी बैठिए, मैं भी बैठता हूँ।'
जैसा कि आम तौर से औरतें करती हैं, छीना-झपटी, शोर-गुल करके विनोदिनी ने शर्म की धूम नहीं मचाई। उसने सहज ही सुर में कहा - 'आपके ही अनुरोध से बैठती हूँ, लेकिन मन-ही-मन अभिशाप न दीजिएगा।'
महेंद्र ने कहा - 'अभिशाप दूँगा। दूँगा कि आप में देर तक चलने की शक्ति न रह जाए।'
विनोदिनी ने कहा - 'इस अभिशाप से मैं नहीं डरती। क्योंकि आपका देर तक ज्यादा देर का नहीं होगा, शायद अब खत्म भी हो चला।'
और उसने फिर उठ कर खड़ा होना चाहा। आशा ने उसका हाथ थाम लिया। कहा - 'सिर की सौगंध तुम्हें, और कुछ देर बैठो!'
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