उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र ने कहा - 'रहने भी दो चुन्नी, तुम्हारी किरकिरी से गप-शप की फुर्सत कहाँ है अपने पास? पढ़ने के वक्त किताबों से नाता और फुर्सत की घड़ियों के लिए तुम हो- इस बीच... !'
दोनों के बीच में विनोदिनी के लिए सुई की नोक-भर भी जगह छोड़ने को महेंद्र तैयार नहीं था, यह बात उसके गर्व का विषय बन बैठी। उसका वह गर्व आशा से सहा नहीं जाता, पर आज उसने हार कबूल कर ली। कहा - 'खैर, मेरी ही खातिर तुम मेरी किरकिरी से बोलो!'
आशा के आगे अपने प्रेम की दृढ़ता और श्रेष्ठता प्रमाणित करके अंत में बड़ी कृपा करके वह विनोदिनी से बात करने को राजी हुआ।
दूसरे दिन सुबह आशा गई और सोई हुई विनोदिनी से लिपट गई। विनोदिनी बोली - 'यह कैसा गजब! चकोरी आज चाँद छोड़ कर मेघ के दरबार में?'
आशा ने कहा - 'तुम लोगों की यह कविता मेरी समझ में नहीं आती, फिर गोबर में नाहक घी क्या डालना! जो इन बातों का जवाब दे सकता है, चल कर एक बार उसे सुनाओ!'
विनोदिनी ने पूछा - 'आखिर वह रसिक है कौन?'
आशा ने कहा - 'तुम्हारे देवर- मेरे पति। मजाक नहीं, तुमसे बातें करने के लिए वह मुझे परेशान कर रहे हैं।'
विनोदिनी अपने मन में बोली - 'बीवी के हुक्म से मेरी बुलाहट हुई है और मैं सिर पर पाँव रख कर भागी जाऊँगी- ऐसी समझा है मुझे!'
विनोदिनी किसी भी तरह तैयार न हुई। आशा पति के सामने बड़ी लज्जित हुई।
मन-ही-मन महेंद्र इस पर बड़ा नाराज हुआ, 'मेरे सामने आने में एतराज! मुझे दूसरे मामूली लोगों-सा समझती है? और कोई होता तो जाने कब, कितने बहानों से विनोदिनी से मिलता, बोलता-चालता। लेकिन महेंद्र ने इसकी कभी कोशिश तक न की, इसी से विनोदिनी को क्या मेरा परिचय नहीं मिला? वह एक बार भली तरह जान लेती तो समझ जाती कि मुझमें और दूसरे किसी पुरुष में क्या फर्क है।'
दो दिन पहले विनोदिनी भी कुढ़न से बोली थी, 'इतने दिनों से इस घर में हूँ और महेंद्र एक बार मुझे देखने की कोशिश भी नहीं करता! बुआ के कमरे में होती हूँ तब भी वह किसी बहाने अपनी माँ के पास नहीं आता। ऐसी लापरवाही किस बात की। मैं कोई जड़ पदार्थ हूँ! मैं आदमी नहीं... स्त्री नहीं! कहीं वह मुझे जान पाता तो पता चलता कि उसकी प्यारी चुन्नी और मुझमें क्या फर्क है!'
आशा ने तरकीब सुझाई- 'तुम कॉलेज गए हो, यह कह कर मैं उसे अपने कमरे में ले आऊँगी कि अचानक बाहर से तुम आ जाना! बस, कोई बस न चलेगा।'
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