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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

13

विनोदिनी जब बिलकुल ही पकड़ में न आई, तो आशा को एक तरकीब सूझी। बोली, 'भई आँख की किरकिरी, तुम मेरे पति के सामने क्यों नहीं आती, भागती क्यों फिरती हो?'

विनोदिनी ने बड़े संक्षेप में लेकिन तेज स्वर में कहा-'छि:!'

आशा बोली - 'क्यों? माँ से मुझे पता चला है, तुम हम लोगों की गैर नहीं हो।'

गंभीर हो कर विनोदिनी ने कहा - 'संसार में अपना-पराया कोई नहीं होता। जो अपना मानता है, वही अपना है और जो पराया समझता है, वह अपना होते हुए भी पराया है।'

आशा ने देखा, यह बात लाजवाब है। वास्तव में उसके पति विनोदिनी के साथ ज्यादती करते हैं, सचमुच उसे गैर समझते हैं और नाहक ही उससे खीझा करते हैं।

उस दिन साँझ को आशा ने बड़े नाजो-अंदाज से पति के सामने छेड़ा- 'तुम्हें मेरी आँख की किरकिरी से परिचय करना पड़ेगा।'

महेंद्र हँस कर बोला, 'तुम्हारे साहस की बलिहारी!'

आशा ने पूछा - 'क्यों, इसमें डर किस बात का?'

महेंद्र - 'अपनी सखी की जिस गजब की खूबसूरती का जिक्र किया करती हो वह तो खतरे से खाली नहीं।'

आशा ने कहा - 'खैर, वह मैं देख लूँगी। तुम उससे बोलोगे या नहीं, इतना बता दो।'

विनोदिनी को देखने का कौतूहल महेंद्र को भी था। फिर भी यह आग्रह उसे ठीक नहीं लग रहा था।

हृदय के नाते के बारे में महेंद्र के उचित-अनुचित का आदर्श औरों की अपेक्षा कुछ कड़ा था। इसके पहले वह विवाह की बात नहीं सुनना चाहता था, इसलिए कि कहीं माँ के अधिकार पर आँच न आए। और अब आशा के संबंध की रक्षा वह इस तरह से करना चाहता कि किसी पराई औरत के लिए मन में जरा-सा कौतूहल न पैदा हो। प्यार के मामले में वह बड़ा वैसा-सा है, लेकिन पक्का- इस बात का उसे मन-ही-मन नाज भी था। यहाँ तक कि वह चूँकि बिहारी को अपना दोस्त कहता, इसलिए दूसरे किसी को भी वह मित्र नहीं मानना चाहता। कोई उसकी ओर खिंच कर आता भी तो वह जबर्दस्ती उसकी ओर से लापरवाही दिखाता और बिहारी के सामने उस बेचारे का मजाक उड़ाते हुए अपनी उदासी जाहिर करता। बिहारी कहीं एतराज करता तो महेंद्र कहता, 'यह तुमसे हो सकता है। कहीं भी जाते हो, तुम्हें मित्रों की कमी नहीं रहती, मगर मैं हर किसी को मित्र नहीं मान सकता।'

ऐसे महेंद्र का मन जब इधर एक अपरिचिता की ओर कौतूहल और व्यग्रता से बरबस खिंच जाया करता, तो अपने आदर्श के आगे वह नीचा हो जाता। सो वह विनोदिनी को घर से हटाने के लिए अपनी माँ को तंग करने लगा।

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