उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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आशा को एक साथी की बड़ी जरूरत थी। प्यार का त्योहार भी महज दो आदमियों से नहीं मनता - मीठी बातों की मिठाई बाँटने के लिए गैरों की भी जरूरत पड़ती है।
भूखी-प्यासी विनोदिनी भी नई बहू से प्रेम के इतिहास को शराबी की दहकती हुई सुरा के समान कान फैला कर पीने लगी। सूनी दोपहरी में माँ जब सोती होतीं, घर के नौकर-चाकर निचले तल्ले के आरामगाह में छिप जाते, बिहारी की ताकीद से महेंद्र कुछ देर के लिए कॉलेज गया होता और धूप से तपी नीलिमा के एक छोर से चील की तीखी आवाज बहुत धीमी सुनाई देती, तो कमरे के फर्श पर अपने बालों को तकिए पर बिखेरे आशा लेट जाती और पेट के नीचे तकिया रख कर पट पड़ी विनोदिनी उसकी गुन-गुन स्वर से कही जाने वाली कहानी में तन्मय हो जाती- उसकी कनपटी लाल हो उठती, साँस जोर-जोर से चलने लगती।
विनोदिनी खोद-खोद कर पूछती और छोटी-से-छोटी बात भी निकाल लेती, एक ही बात कई बार सुनती, घटना खत्म हो जाती तो कल्पना करती; कहती - 'अच्छा बहन, कहीं ऐसा होता तो क्या होता और यह होता तो क्या करती?' इन अनहोनी कल्पनाओं की राह में सुख की बातों को खींच कर दूर तक ले जाना आशा को भी अच्छा लगता।
विनोदिनी कहती- 'अच्छा भई आँख की किरकिरी, तुझसे कहीं बिहारी बाबू का ब्याह हुआ होता तो?'
आशा - 'राम-राम, ऐसा न कहो! बड़ी शर्म आती है मुझे। हाँ, तुम्हारे साथ होता तो क्या कहने! चर्चा तो तुमसे होने की भी चली थी।'
विनोदिनी - 'मुझसे तो जाने कितनों की, कितनी ही बातें चलीं। न हुआ, ठीक ही हुआ। मैं जैसी हूँ, ठीक हूँ।'
आशा प्रतिवाद करती। वह भला यह कैसे कबूल कर ले कि विनोदिनी की अवस्था उससे अच्छी है। उसने कहा - 'जरा यह तो सोच देखो, अगर मेरे पति से तुम्हारा ब्याह हो जाता! होते-होते ही तो रह गया।'
होते-होते ही रह गया। क्यों नहीं हुआ? आशा का यह बिस्तर, यह पलँग सभी तो उसी का इंतजार कर रहे थे। उस सजे-सजाए शयन-कक्ष को विनोदिनी देखती और इस बात को किसी भी तरह न भुला पाती। इस घर की वह महज एक मेहमान है- आज उसे जगह मिली है, कल छोड़ जाना होगा।
तीसरे पहर विनोदिनी खुद अपनी अनूठी कुशलता से आशा का जूड़ा बाँध देती और जतन से श्रृंगार करके उसके पति के पास भेजा करती।
इस तरह खामखाह देर कर देना चाहती।
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