उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
नाराज हो कर महेंद्र कहता, 'तुम्हारी यह सहेली तो टस से मस नहीं होना चाहती- घर कब जाएगी?'
उतावली हो आशा कहती, 'न-न, मेरी आँख की किरकिरी पर तुम नाराज क्यों हो। तुम्हें पता नहीं, तुम्हारी चर्चा उसे कितनी अच्छी लगती है - किस जतन से वह सजा-सँवार कर मुझे तुम्हारे पास भेजा करती है।'
राजलक्ष्मी आशा को कुछ करने-धरने न देतीं। विनोदिनी ने उसकी तरफदारी की, और उसे काम में जुटाया। विनोदिनी को आलस जरा भी नहीं था। दिन-भर एक-सी काम में लगी रहती। आशा को वह छुट्टी नहीं देना चाहती। एक के बाद दूसरा, वह कामों का कुछ ऐसा क्रम बनाती कि आशा के लिए जरा भी चैन पाना गैरमुमकिन था। आशा का पति छत वाले सूने कमरे में बैठा चिढ़ के मारे छटपटा रहा है- यह सोच कर विनोदिनी मन-ही-मन हँसती रहती। आशा अकुला कर कहती, 'भई आँख की किरकिरी, अब इजाजत दो, वह नाराज हो जाएँगे।'
झट विनोदिनी कहती, 'बस, जरा-सा। इसे खत्म करके चली जाओ! ज्यादा देर न होगी।' जरा देर में आशा फिर उद्विग्न हो कर कहती- 'न बहन, अब वह सचमुच ही नाराज होंगे। मुझे छोड़ दो, चलूँ मैं।'
विनोदिनी कहती, 'जरा नाराज ही हुए तो क्या। सुहाग में गुस्सा न मिले तो मुहब्बत में स्वाद नहीं मिलता- जैसे सब्जी में नमक-मिर्च के बिना।'
लेकिन नमक-मिर्च का मजा क्या होता है, यह विनोदिनी ही समझ रही थी- न थी सिर्फ उसके पास सब्जी। उसकी नस-नस में मानो आग लग गई। जिधर भी नजर करती, चिनगारियाँ उगलतीं उसकी आँखें। ऐसी आराम की गिरस्ती! ऐसे सुहाग के स्वामी! इस घर को तो मैं राजा की रिसायत, इस स्वामी को अपने चरणों का दास बना कर रखती। (आशा को गले लगा कर) 'भई आँख की किरकिरी, मुझे बताओ न, कल तुम लोगों में क्या बातें हुईं। तुमने वह कहा था, जो मैंने करने को कहा था? तुम लोगों के प्यार की बातें सुन कर मेरी भूख-प्यास जाती रहती है।'
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