उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
आशा ने गौर किया, राजलक्ष्मी से विनोदिनी को किसी भी तरह का संकोच नहीं। और मानो आशा को दिखा-दिखा कर राजलक्ष्मी भी उसका काफी आदर करतीं। यह भी देखा, घर के कामकाज में विनोदिनी पटु है, प्रभुत्व मानो उसके लिए बहुत ही सहज है, स्वभाव-सिद्ध नौकर-नौकरानियों से काम लेने, झिड़कने-फटकारने और हुक्म देने में उसे जरा सी हिचक नहीं होती। यह सब देख-भाल कर विनोदिनी के आगे आशा अपने को बहुत छोटा समझने लगी।
वही सर्वगुण-संपन्न विनोदिनी जब खुद उससे नेह की भीख माँगने आई, तो उसका आनंद चौगुना हो उमड़ पड़ा। जादूगर के माया-तरु की तरह उसके प्रेम का बीज एक ही दिन में अकुराया, पत्तों से लद गया और फल-फूल उठा।
आशा ने कहा - 'हम-तुम सखियाँ हुईं, एक कोई नाम रख छोड़ें हम अपना।'
विनोदिनी ने हँस कर पूछा - 'क्या आखिर?'
आशा ने बहुत-से अच्छे-अच्छे नाम गिनाए-हरसिंगार, कदम्ब, मौलसिरी...
विनोदिनी बोली - 'ये सारे-के-सारे बड़े पुराने पड़ गए। इन दुलार के नामों की कोई कद्र नहीं।'
आशा ने पूछा - 'फिर तुम्हें कौन-सा पसंद है?'
हँस कर विनोदिनी ने कहा - 'आँख की किरकिरी।'
आशा कोई मीठा-सा नाम ही चाहती थी, लेकिन विनोदिनी की पसंद से उसने दुलार की इस गाली को ही कबूल कर लिया। बाँहों से उसकी गर्दन लपेट कर बोली - 'मेरी आँख की किरकिरी!'
और हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई।
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