उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
|
10 पाठकों को प्रिय 103 पाठक हैं |
नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
बिहारी के अंदर जाते ही राजलक्ष्मी ने पूछा - 'तू आ गया, बेटे?'
बिहारी बोला - 'हाँ माँ, लौट आया।'
राजलक्ष्मी ने पूछा - 'काम हो गया तेरा?'
खुश हो कर बिहारी बोला - 'हाँ माँ, हो गया। अब मुझे कोई चिंता नहीं रही।'
और उसने एक बार बाहर की तरफ देखा।
राजलक्ष्मी- 'बहू आज तेरे लिए खुद खाना पकाए गी- मैं यहाँ से उसे बताती जाऊँगी। डॉक्टर ने मना किया है- मगर अब काहे की मनाही, बेटे! मैं क्या इन आँखों से एक बार तुम लोगों का खाना भी न देख पाऊँगी!'
बिहारी ने कहा - 'डॉक्टर के मना करने की बात तो समझ में नहीं आती - तुम न बताओगी तो चलेगा कैसे? छुटपन से तुम्हारे हाथ की ही रसोई हमें भाई है - महेंद्र भैया का जी तो पश्चिम की दाल-रोटी से ऊब गया है - तुम्हारे हाथ की बनाई मछली मिलेगी, तो वह जी जाएगा। आज हम दोनों भाई जैसे बचपन में करते थे, होड़ लगा कर खाएँगे। तुम्हारी बहू जुटा सके, तब जानो।'
राजलक्ष्मी समझ तो गई थीं कि बिहारी के साथ महेंद्र आया है, फिर भी उनकी धड़कन बढ़ गई।
बिहारी ने कहा - 'पछाँह जा कर महेंद्र की सेहत बहुत-कुछ सुधर गई है। आज सफर से आया है, इसलिए थका-माँदा लगता है। नहाने से ठीक हो जाएगा।'
राजलक्ष्मी ने फिर भी महेंद्र के बारे में कुछ न कहा। इस पर बिहारी ने कहा - 'माँ, महेंद्र बाहर ही खड़ा है। जब तक तुम नहीं बुलाओगी वह नहीं आएगा।'
राजलक्ष्मी कुछ बोलीं नहीं, सिर्फ दरवाजे की तरफ नजर उठाई। उनका उधर देखना था कि बिहारी ने कहा -'महेंद्र भैया, आ जाओ!'
महेंद्र धीरे-धीरे अंदर आया। कलेजे की धड़कन कहीं एकाएक थम जाए, इस डर से राजलक्ष्मी तुरंत महेंद्र की ओर न देख सकीं। आँखें अधमुँदी रहीं। बिस्तर की तरफ ताक कर महेंद्र चौंक उठा। उसे मानो किसी ने पीटा हो।
माँ के पैरों के पास सिर रख कर उनका पैर पकड़े पड़ा रहा। कलेजे की धड़कन से राजलक्ष्मी का सर्वांग काँपता रहा। कुछ देर बाद अन्न्पूर्णा ने धीमे से कहा - 'दीदी, तुम महेंद्र को कहो कि वह उठे, नहीं तो वह यहीं बैठा रहेगा।'
बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा - 'महेंद्र, उठ!' बहुत दिनों के बाद महेंद्र का जो नाम लिया तो उनकी आँखों से आँसू की धारा फूट पड़ी। आँसू बहने से मन की पीड़ा कुछ हल्की हुई। महेंद्र उठा, जमीन पर घुटना गाड़, खाट की पाटी पर छाती रख कर माँ के पास बैठा। राजलक्ष्मी ने बड़ी तसल्ली से करवट बदली। दोनों हाथों से अपनी ओर खींच कर उन्होंने महेंद्र का सिर सूँघा, और ललाट को चूम लिया।
|