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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

महेंद्र ने रुँधे कंठ से कहा - 'मैंने तुम्हें बड़ी तकलीफ पहुँचाई है, माँ मुझे माफ करो।'

कलेजा ठंडा हुआ तो राजलक्ष्मी ने कहा - 'ऐसा मत कह बेटे, तुझे माफ किए बिना मैं जी सकती हूँ भला! बहू कहाँ गई? बहू!'

आशा पास ही दूसरे कमरे में पथ्य तैयार कर रही थी। अन्नपूर्णा उसे बुला लाईं।

राजलक्ष्मी ने महेंद्र को जमीन पर से उठ कर बिस्तर पर बैठने का इशारा किया। महेंद्र बैठा, तो उसके बगल की जगह दिखाती हुई राजलक्ष्मी ने कहा -'तुम यहाँ बैठो, बहू! आज तुम दोनों को मैं पास-पास बिठा कर देख लूँ, तभी मेरी तकलीफ मिटेगी। बहू, आज मुझसे शर्म न करो! महेंद्र के लिए जो मलाल है, उसे भी भुला दो। उसके पास बैठो।

इस पर आशा घूँघट निकाले धड़कते दिल से लजाती हुई आ कर महेंद्र के पास बैठ गई। राजलक्ष्मी ने महेंद्र का दाहिना हाथ लिया और आशा के दाहिने हाथ से मिला कर दबाया। बोली - 'अपनी इस बिटिया को मैं तेरे हाथों सौंप जाती हूँ, महेंद्र - इसका खयाल रखना, ऐसी लक्ष्मी तुझे और कहीं नहीं मिलेगी। मँझली आओ, दोनों को आशीर्वाद दो, तुम्हारे पुण्य से ही दोनों का मंगल हो।'

अन्नपूर्णा उनके सामने गईं। दोनों ने आँसू-भरे नेत्रों से उनके चरणों की धुल ली। उन्होंने दोनों के माथे को चूमा - 'ईश्वर तुम्हारा मंगल करे!'

राजलक्ष्मी - 'बिहारी, आगे आओ बेटे, महेंद्र को तुम माफी दो।'

बिहारी ज्यों ही महेंद्र के सामने जा कर खड़ा हुआ, उसने उसे बाँहों में लपेट कर कस कर छाती से लगा लिया।

राजलक्ष्मी ने कहा - 'मैं आशीर्वाद देती हूँ महेंद्र, बिहारी छुटपन से तेरा जैसा मित्र था, सदा वैसा ही रहे।'

इसके बाद राजलक्ष्मी थकावट के मारे और कुछ न कह सकीं। चुप हो गईं। बिहारी कोई उत्तेजक दवा उनके होंठों तक ले गया। हाथ हटा कर राजलक्ष्मी ने कहा - 'अब दवा नहीं बेटे, अब मैं भगवान को याद करूँ - वही मुझे दुनिया की सारी जलन की दवा देंगे। महेंद्र, तुम लोग थोड़ा आराम कर लो बेटे! बहू, रसोई चढ़ा दो!'

शाम को महेंद्र और बिहारी राजलक्ष्मी की खाट के पास नीचे खाने बैठे। परोसने का जिम्मा राजलक्ष्मी ने आशा को दे रखा था। वह परोसने लगी।

महेंद्र का कौर नहीं उठ रहा था, कलेजे में आँसू उमड़े आ रहे थे। राजलक्ष्मी बोलीं - 'तू ठीक से खा क्यों नहीं रहा है, महेंद्र? खा, मैं आँखें भर कर देखूँ।'

बिहारी ने कहा - 'तुम तो जानती ही हो माँ, महेंद्र भैया का सदा का यही हाल है। वह खा नहीं सका। भाभी, जरा यह घंटो थोड़ा-सा और दो मुझे, बेहतरीन बना है।'

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