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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

53

महेंद्र माँ के कमरे में जा रहा था कि आशा दौड़ी-दौड़ी आई। कहा - 'अभी वहाँ मत जाओ!'

महेंद्र ने पूछा - 'क्यों?'

आशा बोली - 'डॉक्टर ने बताया है, माँ, चाहे दु:ख का हो चाहे सुख का - अचानक कोई धक्का लगने से आफत हो सकती है।'

महेंद्र बोला - मैं दबे पाँवों उनके सिरहाने की तरफ जा कर एक बार देख आऊँ जरा। उन्हें पता न चलेगा।'

आशा - 'नहीं, अभी आप माँ से नहीं मिल सकते।'

महेंद्र - 'तो तुम करना क्या चाहती हो?'

आशा - 'पहले बिहारी बाबू उन्हें देख आएँ, वे जैसा कहेंगे, वही करूँगी।'

इतने में बिहारी आ गया। आशा ने उसे बुलवाया था।

बिहारी को देख कर आशा को थोड़ा भरोसा हुआ। बोली - 'तुम्हारे जाने के बाद से माँ और भी अकुला उठी हैं, भाई साहब। पहले दिन जब तुम न दिखाई पड़े तब उन्होंने पूछा - 'बिहारी कहाँ गया?' मैंने कहा - 'वे एक जरूरी काम से बाहर गए हैं। बृहस्पति तक लौट आएँगे।' उसके बाद से वे रह-रह कर चौंक-चौंक पड़ती हैं। मुँह से कुछ नहीं कहतीं लेकिन अंदर-ही-अंदर मानो किसी की राह देख रही हैं। कल तुम्हारा तार मिला। मैंने उन्हें बताया, तुम आ रहे हो। उन्होंने आज तुम्हारे लिए खास तौर से खाने का इंतजाम करवाने को कहा है। तुम्हें जो-जो चीजें अच्छी लगती हैं, सब मँगवाई हैं, सामने बरामदे पर रसोई का प्रबंध कराया है, अंदर से वह खुद बनाती रहेंगी। डॉक्टर ने लाख मना किया, एक न सुनी। अभी-अभी जरा देर पहले मुझे बुला कर कहा, 'बहू, रसोई तुम अपने हाथों बनाना, आज बिहारी को मैं अपने सामने बैठा कर खि लाऊँगी'।

सुनते ही बिहारी की आँखें छलछला उठीं। पूछा - 'माँ हैं कैसी?'

आशा ने कहा - 'तुम खुद चल कर देखो, मुझे तो लगता है, बीमारी और बढ़ गई है।'

बिहारी अंदर गया। महेंद्र खड़ा अचरज में पड़ गया। आशा ने मजे में गृहस्थी सम्हाल ली है - कितनी आसानी से महेंद्र को अंदर जाने से रोक दिया। न संकोच किया, न रूठी।

महेंद्र आज कितना सकुचा गया है! वह अपराधी है - चुपचाप खड़ा रहा, बाहर। माँ के कमरे में न घुस सका।

फिर भी यह अजीब बात - बिहारी से वह कैसे बे-खटके बोली। सलाह-परामर्श सब उसी से। वही आज इस घर का सबसे बड़ा शुभचिंतक है, एकमात्र रक्षक है। उसको कहीं रोक नहीं, उसी के निर्देश पर सब-कुछ चलता है। कुछ दिनों के लिए महेंद्र जो स्थान छोड़ कर चला गया था, लौट कर देखा, वह स्थान अब ठीक वैसा ही नहीं है।

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