उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
विनोदिनी - 'यही मेरा पुरस्कार है। इतना-भर स्वीकार किया, मेरे लिए यही बहुत है, इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं चाहती। ज्यादा मिले भी तो रहने का नहीं।'
बिहारी - 'क्यों?'
विनोदिनी - 'वह सोचते हुए भी शर्म आती है। मैं विधवा हूँ, बदनाम हूँ- सारे समाज के सामने तुम्हारी फजीहत करूँ, यह हर्गिज नहीं होगा। छि:, यह बात जबान पर न लाओ।'
बिहारी - 'तुम मुझे छोड़ दोगी?'
विनोदिनी - 'छोड़ने का अधिकार मुझे नहीं। चुपचाप तुम बहुतों की बहुत भलाई किया करते हो - अपने वैसे ही किसी व्रत का कोई-सा भार मुझे देना, उसी को ढोती हुई मैं अपने-आपको तुम्हारी दासी समझा करूँगी। लेकिन विधवा से तुम ब्याह करोगे, छि:! तुम्हारी उदारता से सब-कुछ मुमकिन है, लेकिन मैं यह काम करूँ, समाज में तुम्हें नीचा करूँ तो जिंदगी में यह सिर कभी उठा न सकूँगी।'
बिहारी - 'मगर मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।'
विनोदिनी - 'उसी प्यार के अधिकार से आज मैं एक ढिठाई करूँगी।'
इतना कह कर विनोदिनी झुकी। उसने पैर की उँगली को चूम लिया। पैरों के पास बैठ कर बोली - 'तुम्हें अगले जन्म में पा सकूँ, इसके लिए मैं तपस्या करूँगी। इस जन्म में अब कोई उम्मीद नहीं। मैंने बहुत दु:ख उठाया - काफी सबक मिला। यह सबक अगर भूल बैठती, तो मैं तुम्हें नीचा दिखा कर और भी नीची बनती। लेकिन तुम ऊँचे हो, तभी आज मैं फिर से सिर उठा सकी हूँ- अपने इस आश्रय को मैं धूल में नहीं मिला सकती।'
बिहारी गंभीर हो रहा।
विनोदिनी ने हाथ जोड़ कर कहा - 'गलती मत करो - मुझसे विवाह करके तुम सुखी न होगे, अपना गौरव गँवा लोगे - मैं भी अपना गर्व खो बैठूँगी। तुम सदा निर्लिप्त रहो, प्रसन्न रहो। आज भी तुम वही हो - मैं दूर से ही तुम्हारा काम करूँगी। तुम खुश रहो, सदा सुखी रहो।'
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