उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
बिहारी चुप रहा। विनोदिनी भी और कुछ न बोली। तीसरे पहर की धूप पल-पल पर फीकी पड़ने लगी। ऐसे समय महेंद्र दरवाजे पर आया और बिहारी को देख कर चौंक पड़ा। विनोदिनी के प्रति उसमें जो उदासीनता आ रही थी, ईर्ष्या से वह जाने-जाने को हो गई। विनोदिनी को बिहारी के पाँवों के पास बैठी देख कर ठुकराए हुए महेंद्र को चोट पहुँची।
व्यंग्य के स्वर में महेंद्र ने कहा - 'तो अब रंगमंच से महेंद्र का प्रस्थान हुआ, बिहारी का प्रवेश! दृश्य बेहतरीन है। तालियाँ बजाने को जी चाहता है। लेकिन उम्मीद है, यही अंतिम अंक है। इसके बाद अब कुछ भी अच्छा न लगेगा।'
विनोदिनी का चेहरा तमतमा उठा। महेंद्र की शरण जब उसे लेनी पड़ी है, तो इस अपमान का क्या जवाब दे, व्याकुल हो कर उसने केवल बिहारी की ओर देखा।
बिहारी खाट से उठा। बोला - 'महेंद्र, कायर की तरह विनोदिनी का यों अपमान न करो - तुम्हारी भलमनसाहत अगर तुम्हें नहीं रोकती, तो रोकने का अधिकार मुझको है।'
महेंद्र ने हँस कर कहा - 'इस बीच अधिकार भी हो गया? आज तुम्हारा नया नामकरण है - विनोदिनी!'
अपमान करने का हौसला बढ़ता ही जा रहा है, यह देख कर बिहारी ने महेंद्र का हाथ दबाया। कहा - 'महेंद्र, मैं विनोदिनी से ब्याह करूँगा, सुन लो! लिहाजा संयत हो कर बात करो।'
महेंद्र अचरज के मारे चुप हो गया और विनोदिनी चौंक उठी। उसकी छाती के अंदर का लहू खलबला उठा।
बिहारी ने कहा - 'और एक खबर देनी है तुम्हें। तुम्हारी माँ मृत्युसेज पर हैं। बचने की कोई उम्मीद नहीं। मैं आज रात को ही गाड़ी से जाऊँगा - विनोदिनी भी मेरे साथ जाएगी।'
विनोदिनी ने चौंक कर पूछा - 'बुआ बीमार हैं?'
बिहारी बोला - 'हाँ, सख्त। कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।'
यह सुन कर महेंद्र ने और कुछ न कहा! चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया।
विनोदिनी ने बिहारी से पूछा-'अभी-अभी तुमने जो कहा, तुम्हारी जुबान पर यह बात कैसे आई? मजाक तो नहीं?'
बिहारी बोला - 'नहीं, मैंने ठीक ही कहा है। मैं तुमसे ब्याह करूँगा।'
विनोदिनी - 'किसलिए? उद्धार करने के लिए।'
बिहारी - 'नहीं, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, इसलिए।'
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