उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
विनोदिनी बोली - 'भाई साहब, जो सोच रहे हो, वह बात नहीं है। इस कमरे को कलंक की छाया नहीं छू सकी है। कभी यहाँ सोए थे - इसे मैंने तुम्हारे ही लिए उत्सर्ग करके रखा है। सूखे पड़े ये फूल तुम्हारी ही पूजा के हैं। तुम्हें यहीं बैठना होगा।'
सुन कर बिहारी के मन में पुलक का संचार हुआ। वह कमरे में गया। विनोदिनी ने दोनों हाथों से उसे खाट का इशारा किया। बिहारी खाट पर बैठा। विनोदिनी उसके पैरों के पास जमीन पर बैठी। विनोदिनी ने बिहारी को व्यस्त होते देख कर कहा - 'तुम बैठो, भाई साहब! सिर की कसम तुम्हें, उठना मत। मैं तुम्हारे पैरों के पास भी बैठने लायक नहीं - दया करके ही तुमने मुझे यह जगह दी है। दूर रहूँ, तो भी इतना अधिकार मैं रखूँगी।'
यह कह कर विनोदिनी जरा देर चुप रही। उसके बाद अचानक चौंक कर बोली - 'तुम्हारा खाना?'
बिहारी बोला - 'स्टेशन से खा कर आया हूँ।'
विनोदिनी - 'मैंने गाँव से तुम्हें जो पत्र दिया था, उसे खोल कर पढ़ा और कोई जवाब न दे कर उसे महेंद्र की मार्फत लौटा क्यों दिया?'
बिहारी - 'कहाँ, वह चिट्ठी तो मुझे नहीं मिली।'
विनोदिनी - 'इस बार कलकत्ता में महेंद्र से तुम्हारी भेंट हुई थी।'
बिहारी - 'तुम्हें गाँव पहुँचा कर लौटा, उसके दूसरे दिन भेंट हुई थी। उसके बाद मैं पछाँह की ओर सैर को निकल पड़ा, उससे फिर भेंट नहीं हुई।'
विनोदिनी - 'उससे पहले और एक दिन मेरी चिट्ठी पढ़ कर बिना उत्तर के वापिस कर दी?'
बिहारी - 'नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ।'
विनोदिनी बुत-सी बैठी रही। उसके बाद लंबी साँस छोड़ कर बोली - 'सब समझ गई। अब अपनी बात बताऊँ - मगर यकीन करो तो अपनी खुशकिस्मती समझूँ और न कर सको तो तुमको दोष न दूँगी। मुझ पर यकीन करना मुश्किल है।'
बिहारी का हृदय पसीज गया। भक्ति से झुकी विनोदिनी की पूजा का वह किसी भी तरह अपमान न कर सका। बोला - 'भाभी, तुम्हें कुछ कहना न पडेगा।। बिना कुछ सुने ही मैं तुम्हारा विश्वास करता हूँ। मैं तुमसे घृणा नहीं कर सकता। तुम अब एक भी शब्द न कहना!'
सुन कर विनोदिनी की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने बिहारी के चरणों की धूल ली। बोली - 'सब न सुनोगे, तो मैं जी न सकूँगी। थोड़ा धीरज रख कर सुनना होगा - तुमने मुझे जो आदेश दिया था, मैंने उसी को सिर माथे उठा लिया था। तुमने मुझे पत्र तक न लिखा, तो भी अपने गाँव में मैं लोगों की निंदा सहकर जिंदगी बिता देती, तुम्हारे स्नेह के बदले तुम्हारे शासन को ही स्वीकार करती - लेकिन विधाता उसमें भी वाम हुए। जिस पाप को मैंने जगाया, उसने मुझे निर्वासन में भी न टिकने दिया। महेंद्र वहाँ पहुँचा, मेरे घर पर जा कर उसने सबके सामने मेरी मिट्टी पलीद की। गाँव में मेरे लिए जगह न रह गई। मैंने दुबारा तुम्हें बेहद तलाशा कि तुम्हारा आदेश लूँ, पर तुमको न पा सकी। मेरी खुली चिट्टी तुम्हारे यहाँ से ला कर मुझे देते हुए महेंद्र ने धोखा दिया। मैंने समझा, तुमने मुझे एकबारगी त्याग दिया। इसके बाद मैं बिलकुल नष्ट हो सकती थी - मगर पता नहीं तुममें क्या है, तुम दूर रह कर भी बचा सकते हो। मैंने दिल में तुम्हें जगह दी है, इसी से पवित्र रह सकी। कभी तुमने मुझे ठुकराकर अपना जो परिचय दिया था, तुम्हारा वही कठिन परिचय सख्त सोने की तरह, ठोस मणि की तरह मेरे मन में है, उसने मुझे मूल्यवान बनाया है। देवता, तुम्हारे पैर छू कर कहती हूँ, वह मूल्य नष्ट नहीं हुआ है।'
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