उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
दूर रहते हुए बिहारी ने सोचा था कि अपने प्रेम के अभिषेक से मैं विनोदिनी के जीवन की सारी कालिमा को धो दूँगा। लेकिन पास आ कर देखा, यह आसान नहीं। मन में करुणा की वेदना कहाँ उपजी? बल्कि एकाएक घृणा ने जग कर उसे अभिभूत कर दिया। बिहारी ने उसे बड़ा मलिन देखा।
वह तुरंत मुड़ कर खड़ा हो गया और उसने 'महेंद्र -महेंद्र' कह कर पुकारा। इस अपमान से विनोदिनी ने नम्र स्वर में कहा - 'महेंद्र नहीं है, शहर गया है।'
बिहारी लौटने लगा। विनोदिनी बोली - 'भाई साहब, मैं पैर पड़ती हूँ, जरा देर बैठना पड़ेगा।'
बिहारी ने सोच रखा था, वह कोई आरजू-मिन्नत नहीं सुनेगा। तय कर लिया था कि नफरत के इस नजारे से तुरंत अपने को अलग कर लेगा। लेकिन विनोदिनी की करुण विनती से उसके कदम क्षण-भर के लिए उठ न सके।
विनोदिनी बोली - 'आज अगर तुम मुझे इस तरह ठुकरा कर चल दिए, तो तुम्हारी कसम खा कर कहती हूँ, मैं मर जाऊँगी।'
बिहारी पलट कर खड़ा हो गया, बोला - 'तुम अपने जीवन से मुझे जकड़ने की कोशिश क्यों करती हो? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? मैं तो कभी तुम्हारी राह में नहीं आया, तुम्हारे सुख-दु:ख में कभी दखल नहीं दिया।'
विनोदिनी बोली - 'तुमने मुझ पर कितना अधिकार कर रखा है, एक बार तुमसे कहा था मैंने - तुमने विश्वास नहीं किया। तो भी तुम्हारी बेरुखी में भी फिर वही कहती हूँ। बिना बोले जताने का शर्म से बताने का मौका तो तुमने मुझे दिया नहीं। तुमने मुझे पैरों से झटक दिया है, मैं फिर भी तुम्हारे पाँव पकड़ कर कहती हूँ - मैं तुम्हें...'
बिहारी ने टोकते हुए कहा - 'बस-बस, रहने दो, यह बात जबान पर मत लाओ। एतबार की गुंजाइश नहीं रही।'
विनोदिनी - 'इतर लोग इस पर विश्वास न करें, पर तुम करोगे। इसीलिए मैं तुम्हें जरा देर बैठने को कह रही हूँ।'
बिहारी - 'मेरे विश्वास करने, न करने से क्या आता-जाता है। तुम्हारी जिंदगी तो जैसी चल रही है, चलती रहेगी।'
विनोदिनी - 'इससे तुम्हारा कुछ आता-जाता नहीं, मैं जानती हूँ। अपना नसीब ही ऐसा है कि तुमसे मुझे सदा दूर ही रहना होगा। बस मैं केवल इतना हक नहीं छोड़ना चाहती कि मैं चाहे जहाँ रहूँ, मुझे जरा माधुर्य के साथ याद करना। मुझे मालूम है, मुझ पर तुम्हें थोड़ी-सी श्रद्धा हुई थी, मैं उसी को अपना अवलंब बनाए रहूँगी। इसीलिए मेरी पूरी बात तुम्हें सुननी होगी। मैं हाथ जोड़ती हूँ, जरा देर बैठो!'
'अच्छा चलो!' कह कर बिहारी उस कमरे से और कहीं जाने को तैयार हुआ।
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