उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र ने तय किया - 'मैं आज ही अपने घर जाऊँगा। विनोदिनी जहाँ भी रहना चाहेगी, वहीं उसका इंतजाम करके मैं मुक्त हो जाऊँगा '- यह जोर से उच्चारण करते ही उसके मन में एक आनंद का उदय हुआ। लगातार दुविधा का जो भार वह ढोता चला आ रहा था, हल्का हो गया। अब तक होता ऐसा रहा कि अभी-अभी जो बात उसे रुचती न थी, दूसरे ही क्षण उसे मानने को मजबूर होना पड़ता था, हाँ-ना कहते न बनता; उसकी अंतरात्मा उसे जो आदेश देती, सदा बलपूर्वक उसे दबा कर वह दूसरी ही राह पर चला करता। अभी जैसे ही उसने जोर से कहा - 'मैं मुक्त हो जाऊँगा' - वैसे ही शरण पा कर उसके झकझोरे हुए हृदय ने उसे बधाई दी।
महेंद्र बिस्तर से उठा, मुँह-हाथ धोया और विनोदिनी से मिलने गया। देखा, कमरा अंदर से बंद है। दरवाजे पर धक्का दे कर पूछा - 'सो रही हो?'
विनोदिनी बोली - 'नहीं, अभी जाओ!'
महेंद्र ने कहा - 'तुमसे जरूरी बात करनी है। ज्यादा देर न रुकूँगा।'
विनोदिनी बोली - 'बात अब मैं नहीं सुनना चाहती, तुम जाओ, मुझे तंग मत करो- अकेली रहने दो।'
और दिन होता, तो इससे महेंद्र का आवेग और बढ़ ही जाता। लेकिन आज उसे बेहद घृणा हुई। सोचा, इस मामूली औरत के आगे अपने-आपको मैंने ऐसा गया-बीता बना छोड़ा है कि अब उसमें मुझे बुरी तरह दुत्कार कर दूर कर देने की हिम्मत हो गई है? यह अधिकार इसका स्वाभाविक नहीं। मैंने ही यह अधिकार दे कर इसके मिजाज को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया है।
विनोदिनी की इस झिड़की से महेंद्र ने अपने में अपनी श्रेष्ठता के अनुभव की कोशिश की। उसके मन ने कहा- 'मैं विजयी होऊँगा - इसके बंधन तोड़ कर चला जाऊँगा।' भोजन करके महेंद्र रुपया निकालने बैंक गया। रुपया निकाला और आशा तथा माँ के लिए कुछ नई चीजें खरीदने के खयाल से वह बाजार की दुकानों में घूमने लगा।
विनोदिनी के दरवाजे पर एक बार फिर धक्का पड़ा। पहले तो आजिजी से उसने कोई जवाब ही न दिया; लेकिन जब बार-बार धक्का पड़ने लगा तो आग-बबूला हो कर दरवाजा खोलते हुए उसने कहा - 'नाहक क्यों बार-बार मुझे तंग करने आते हो तुम?'
बात पूरी करने के पहले ही उसकी नजर पड़ी - बिहारी खड़ा था। कमरे में महेंद्र है या नहीं, यह देखने के लिए बिहारी ने एक बार भीतर की तरफ झाँका। देखा, कमरे में सूखे फूल और टूटी मालाएँ बिखरी पड़ी थीं। उसका मन जबर्दस्त ढंग से विमुख हो उठा। यह नहीं कि बिहारी जब दूर था, तो उसके मन में विनोदिनी के रहन-सहन के बारे में संदेह का कोई चित्र आया ही नहीं, लेकिन कल्पना की लीला ने उस चित्र को ढककर भी एक दमकती हुई मोहिनी छवि खड़ी कर रखी थी। बिहारी जिस समय इस बगीचे में कदम रख रहा था, उस समय उसका दिल धड़कने लगा था - कल्पना की प्रतिमा को कहीं चोट न पहुँचे इस आंशका से उसका हृदय संकुचित हो रहा था। और विनोदिनी के सोने के कमरे के द्वार पर खड़े होते ही वही चोट लगी।
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