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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

इस तरह विनोदिनी शनि ग्रह की तरह घूमने और महेंद्र को घुमाने लगी। कहीं भी चैन न लेने दिया। विनोदिनी बड़ी जल्दी दूसरे को अपना बना सकती है। कुछ ही देर में हमसफरों से मिताई कर लेती। जहाँ जाना होता वहाँ की सारी बातों का अता-पता लगा लेती, रात्रिशाला में ठहरती और जहाँ जो कुछ देखने जैसा होता, उन बंधुओं की मदद से देखती। अपनी आवश्यकता से महेंद्र विनोदिनी के आगे रोज-रोज अपने को बेकार समझने लगा। टिकट लेने के सिवाय कोई काम नहीं। शुरू-शुरू के कुछ दिनों तक वह विनोदिनी के साथ-साथ चक्कर काटा करता था, लेकिन धीरे-धीरे वह असह्य हो गया। खा-पी कर वह सो जाने की फिक्र में होता, विनोदिनी तमाम दिन घूमा करती। माता के लाड़ में पला महेंद्र यों भी चल सकता है, कोई सोचता भी न था।

एक दिन इलाहाबाद स्टेशन पर दोनों गाड़ी का इंतजार कर रहे थे। किसी वजह से गाड़ी आने में देर हो रही थी। इस बीच और जो गाड़ियाँ आ-जा रही थीं, विनोदिनी उनके मुसाफिरों को गौर से देख रही थी। शायद उसे यह उम्मीद थी कि पछाँह में घूमते हुए चारों तरफ देखते-देखते अचानक किसी से भेंट हो जाएगी। कम-से-कम रुँधी गली के सुनसान घर में बेकार की तरह बैठ कर अपने को घोंट मारने की अपेक्षा खोज-बीन में, इस खुली राह की चहल-पहल में शांति थी।

अचानक उधर काँच के एक बक्स पर नजर पड़ते ही विनोदिनी चौंक उठी। उसमें उन लोगों की चिट्ठियाँ रखी जाती हैं, जिनका पता नहीं चलता। उसी बक्स के पत्रों में से एक में उसने बिहारी का नाम देखा। बिहारी नाम कुछ असाधारण नहीं। यह समझने की कोई वजह न थी कि यह बिहारी विनोदिनी का ही वांछित बिहारी है - तो भी बिहारी का पूरा नाम देखकर उसके सिवा किसी और बिहारी को संदेह न हुआ। उसने ठिकाना याद कर लिया। महेंद्र एक बेंच पर बड़ा खुश बैठा था। विनोदिनी उसके पास जा कर बोली - 'कुछ दिनों यहीं रहूँगी।'

विनोदिनी अपने इशारे पर महेंद्र को नचा रही थी और फिर भी उसके भूखे-प्यासे मन को खुराक तक न देती थी, इससे उसके पौरुष गर्व को ठेस लग रही थी और उसका मन दिन-प्रतिदिन बागी होता जा रहा था। इलाहाबाद रुक कर कुछ दिन सुस्ताने का मौका मिले तो मानो वह भी जाए - लेकिन इच्छा के अनुकूल होने के बावजूद उसका मन विनोदिनी के खयाल पर राजी होने को सहसा तैयार न हुआ। उसने नाराज हो कर कहा - 'जब निकल ही पड़ा तो जा कर ही रहूँगा, अब लौट नहीं सकता।'

विनोदिनी बोली - 'मैं नहीं जाऊँगी।'

महेंद्र बोला - 'तो तुम अकेली रहो, मैं चलता हूँ।'

विनोदिनी बोली - 'यही सही।' और बेझिझक उसने इशारे से कुली को बुलाया और स्टेशन से चल पड़ी।

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