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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

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स्टेशन जा कर विनोदिनी औरतों वाले ड्योढ़े दर्जे के डिब्बे में जा बैठी। महेंद्र ने कहा, 'अरे, कर क्या रही हो, मैं तुम्हारा दूसरे दर्जे का टिकट ले रहा हूँ।' वह बोली, 'बेजा क्या है, यहाँ आराम से ही रहूँगी।' महेंद्र ताज्जुब में पड़ गया। विनोदिनी स्वभाव से ही शौकीन थी। गरीबी का कोई भी लक्षण उसे न सुहाता था। अपनी गरीबी को वह अपने लिए अपमानजनक ही मानती थी। महेंद्र ने इतना समझ लिया था कि कभी उसके घर की खुशहाली, विलास की सामग्रियों और औरों की अपेक्षा उनके धनी होने के गौरव ने ही विनोदिनी के मन को आकर्षित किया था। इस धन-दौलत की, इस सारे आराम और गौरव की वह सहज ही मालकिन हो सकती थी, इस कल्पना ने उसे बड़ा उत्तेजित कर दिया था। आज जब उसको महेंद्र पर प्रभुत्व पाने का मौका मिला है, अनचाहे भी वह उसकी धन-दौलत को अपने काम में ला सकती है, तो वह क्यों ऐसी असह्य उपेक्षा से यों तन कर तकलीफदेह शर्मनाक दीनता अपना रही है? वह महेंद्र पर कम-से-कम निर्भर रहना चाह रही थी। जिस उन्मपत महेन्द्रक ने उस जिंदगी-भर के लिए उसके स्वाहभाविक आश्रय से अलग कर दिया है, उससे वह ऐसा कुछ भी नहीं लेना चाहती थी, जो उसके इस सर्वनाश की कीमत-सी गिनी जाय। जब तक वह महेन्द्र  के यहाँ थी, उसमें वैधव्यत की कोई खास कठोरता न थी, लेकिन अब उसने सब तरह के भोग-विलास से अपने को समेट लिया है। अब वह एक जून खाती, मोटा कपड़ा पहनती - और उसकी वह मचलती हुई हँसी-दिल्लिगी न जाने कहाँ चली गई! अब वह ऐसी गुम, ऐसी ढँकी-सी, ऐसी दूर ओर भयंकर हो उठी है कि महेन्द्रह उससे एक भी बात जोर देकर कहने का साहस नहीं कर सकता। अधीर होकर, क्रोधित होकर और ताज्जुाब में पड़कर महेन्द्र  बार-बार यही सोचने लगा कि इतनी कोशिशों के बाद इसने मुझे एक दुर्लभ फल की तरह इतनी ऊँची टहनी से तोड़ लिया है तो फिर वह मुझे सूँघे बिना मिट्टी में क्योंस फेंके दे सही है!

महेन्द्र  ने पूछा - कहाँ का टिकट लूँ, कहो!

महेंद्र ने पूछा - 'पछाँह की तरफ जहाँ भी चाहे, चलो! सुबह जहाँ गाड़ी रुकेगी उतर पड़ेंगे।'

महेंद्र को ऐसी यात्रा में कोई आकर्षण नहीं। आराम न मिले तो तकलीफ होती है। बड़े शहर में रहने की इच्छित जगह न मिले तो मुश्किल। इधर मन में यह डर लगा रहा कि विनोदिनी चुपचाप कहीं उतर न पड़े।

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