उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! डयोढ़ी के अंदर कदम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेंद्र के भाग जाने की शर्म ने उसके सिर को गाड़ दिया। पुराने और जाने-पहचाने नौकरों से उसने पहले की तरह मुलायमियत से कुशल-क्षेम न पूछी। हवेली में जाने को मानो उसके कदम नहीं उठ रहे थे। दुनिया के सामने खुले-आम महेंद्र बेबस आशा को जिस गहरे अपमान में छोड़ गया है, जो अपमान औरत के सबसे बड़े परदे को उघाड़ कर उसे सारी दुनिया की कौतूहल-भरी कृपा-दृष्टि के बीच खड़ा कर देता है, उसी अपमान के आवरणहीन स्वरूप में बिहारी सकुचाई और दुखित आशा को कौन-से प्राण ले कर देखेगा!
लेकिन इन चिंताओं और संकोच का मौका ही न रहा। हवेली में पहुँचते ही आशा दौड़ी-दौड़ी आई और बिहारी से बोली-'भाई साहब, जरा जल्दी आओ, माँ को देखो जल्दी!'
बिहारी से आशा की खुल कर बातचीत ही पहली थी। दुर्दिन का मामूली झटका सारी रुकावटों को उड़ा ले जाता है-जो दूर-दूर रहते हैं, बाढ़ उन सबको अचानक एक सँकरी जगह में इकट्ठा कर देती है।
आशा की इस संकोचहीन अकुलाहट से बिहारी को चोट लगी। इस छोटे-से वाकए से ही वह समझ सका कि महेंद्र अपनी गिरस्ती की कैसी मिट्टी पलीद कर गया है।
बिहारी राजलक्ष्मी के कमरे में गया। अचानक साँस की तकलीफ हो जाने से राजलक्ष्मी फीकी पड़ गई थीं - लेकिन वह तकलीफ ज्यादा देर नहीं रही, इसलिए सँभल गईं।
बिहारी ने राजलक्ष्मी को प्रणाम किया। चरणों की धूल ली। राजलक्ष्मी ने उसे पास बैठने का इशारा किया और धीरे-धीरे कहा - 'कैसा है बिहारी? जाने कितने दिनों से तुझे नहीं देखा!'
बिहारी ने कहा - 'तुमने अपनी बीमारी की खबर क्यों नहीं भिजवाई? फिर क्या मैं जरा भी देर कर पाता।'
राजलक्ष्मी ने धीमे से कहा - 'यह क्या मुझे मालूम नहीं, बेटे! तुझे कोख में नहीं रखा मैंने, लेकिन तुझसे बढ़ कर मेरा अपना क्या दुनिया में है कोई?'
कहते-कहते राजलक्ष्मी की आँखों से आँसू बहने लगे। बिहारी झट-पट उठा। ताखों पर दवा-दारू की शीशियों को देखने के बहाने उसने अपने-आपको जब्त किया। उसके बाद आ कर उसने राजलक्ष्मी की नब्ज देखनी चाही। राजलक्ष्मी बोलीं- 'मेरी नब्ज को छोड़ - मैं पूछती हूँ, तू इतना दुबला क्यों हो गया है?'
अपने दुबले हाथों से राजलक्ष्मी ने बिहारी की गर्दन की हड्डी छू कर देखी।
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