उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
इतने में उसने चौंक कर देखा, सामने अन्नपूर्णा खड़ी है। बदहवास-सा वह उठ पड़ा, दोनों हाथों से उनके पाँव पकड़ कर जमीन पर माथा टेक कर प्रणाम किया। अन्नपूर्णा ने बड़े स्नेह से अपने दाएँ हाथ से उसके बदन और माथे को छुआ। भर आए से स्वर में पूछा - 'तू इतना दुबला क्यों हो गया है, बिहारी?'
बिहारी ने कहा - 'ताकि तुम्हारा स्नेह पा सकूँ।'
सुन कर अन्नपूर्णा की आँखें बरस पड़ीं। बिहारी ने व्यस्त हो कर पूछा - 'तुमने अभी भोजन नहीं किया है, चाची?'
अन्नपूर्णा बोलीं - 'अभी मेरे खाने का समय नहीं हुआ।'
बिहारी बोला - 'चलो-चलो, मैं रसोई की जुगत किए देता हूँ। एक युग के बाद तुम्हारे हाथ की रसोई पत्तल का प्रसाद पा कर जी जाऊँगा मैं।'
महेंद्र और आशा के बारे में बिहारी ने कोई चर्चा नहीं की। इसका दरवाजा तो एक दिन खुद अन्नपूर्णा ने ही अपने हाथों बंद कर दिया था। मान में भर कर उसने उसी निष्ठुर निषेध का पालन किया।
खा चुकने के बाद अन्नपूर्णा ने कहा - 'घाट पर नाव तैयार है बिहारी, चल, कलकत्ता चल!'
बिहारी बोला - 'कलकत्ता से मेरा क्या लेना-देना।'
अन्नपूर्णा ने कहा - 'दीदी बहुत बीमार है, वे तुम्हें देखना चाहती हैं एक बार।'
सुन कर बिहारी चौंक उठा। पूछा - 'और महेंद्र भैया?'
अन्नपूर्णा- 'वह कलकत्ता में नहीं है, बाहर गया है।'
सुनते ही बिहारी का चेहरा सफेद पड़ गया। वह चुप रहा।
अन्नपूर्णा ने पूछा - 'तुझे क्या मालूम नहीं है सारा किस्सा?'
बिहारी बोला - 'कुछ तो मालूम है, अंत तक नहीं।'
इस पर अन्नपूर्णा ने विनोदिनी को ले कर महेंद्र के भाग जाने का किस्सा बताया। बिहारी की निगाह में जल-थल-आकाश का रंग ही बदल गया, उसकी कल्पना के खजाने का सारा रस सुनते ही कड़वा हो गया - 'तो क्या वह मायाविनी उस दिन शाम को मेरे साथ खेल खेल गई? उसका प्रेम-निवेदन महज मक्कारी था! वह अपना गाँव छोड़ कर बेहया की तरह महेंद्र के साथ भाग गई! विश्वाास है उसको, और धिक् हूँ मैं कि मैंने एक पल के लिए भी उसका विश्वाशस किया। हाय री मेघ-घिरी साँझ, हाय री बारिश-खुली पूनो की रात, तुम्हामरे जादू के करिश्मेर कहाँ गए!'
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