उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
बिहारी का जो पिछला जीवन सुख और सन्तोष से कट गया, उसे वह अब भारी नुकसान समझता। ऐसी मेघघिरी साँझ जाने कितनी आईं, पूर्णिमा की कितनी रातें - वे सब हाथों में अमृत का पात्र लिए बिहारी के सूने हृदय के द्वार से चुपचाप लौट गईं - उन दुर्लभ शुभ घड़ियों में कितने गीत घुटे रहे, कितने उत्सव न हो पाए, इसकी कोई हद नहीं। बिहारी के मन में जो पुरानी सुधियाँ थीं, उन्हें विनोदिनी ने उद्यत चुंबन की रक्तिम आभा से ऐसा फीका और तुच्छ कर दिया था। जीवन के ज्यादातर दिन महेंद्र की छाया में कटे! उनकी सार्थकता क्या थी? प्रेम की वेदना में सारे जल-थल-आकाश के केन्द्र-कुहर से ऐसी ताप में इस तरह बाँसुरी बजती है, यह तो अचेतन बिहारी कभी सोच भी न पाया था। विनोदिनी ने बिहारी को बाँहों में लपेट कर अचानक एक पल में जिस अनोखे सौंदर्य-लोक में पहुँचा दिया, उसे वह कैसे भूले! उसकी निगाह, उसकी चाहना आज सब ओर फैल गई है, उसकी अकुलाई साँसें बिहारी के रक्तच-प्रवाह को पल-पल पर लहराए दे रही हैं और उसके परस की कोमल आँच बिहारी को घेरकर उसके पुलकित हृदय को फूल की तरह खिलाए हुए है।
लेकिन फिर भी उस विनोदिनी से बिहारी आज इस तरह दूर क्यों है? इसलिए कि विनोदिनी ने जिस सौंदर्य-रस से बिहारी का अभिषेक किया उस सौंदर्य के अनुकूल संसार में विनोदिनी से किसी संबंध की वह कल्पना नहीं कर सकता। कमल को तोड़ो तो कीच भी उठ आती है। क्या बताकर, कौन-सी ऐसी जगह में उसे बिठाए कि सुन्द र वीभत्सा न हो। फिर कहीं महेन्द्री से छीना-झपटी होने लगे, तो माजरा इतना घिनौना हो उठेगा, जिसकी सम्भा वना को बिहारी मन के कोने में भी जगह देने को तैयार नहीं। इसीलिए एकान्तब गंगा-तट पर विश्व -संगीत के बीच अपनी मानसी प्रतिमा को बिठाकर वह अपने हृदय को धूप-सा जला रहा है। चिट्ठी भेजकर वह इसलिए विनोदिनी की खोज-खबर भी नहीं लेना चाहता कि कहीं कोई ऐसी खबर न मिल जाए, जिससे उसके सुख के सपनों का जाल बिखर जाय!
अपने बगीचे के दक्खिन में फले जामुन-तले बिहारी मेघ-घिरे प्रभात में चुपचाप पड़ा था, सामने से कोठी की डोंगी आ-जा रही थीं। अलसाया-सा वह उसी को देख रहा था। वेला धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। नौकर ने आ कर पूछा, 'भोजन का प्रबंध करे या नहीं?' बिहारी ने कहा - 'अभी रहने दो।'
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