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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

बिहारी ने कहा - 'जब तक तुम्हारे हाथ की रसोई नसीब नहीं होती, यह हड्डी ढँकने की नहीं। तुम जल्दी ठीक हो जाओ माँ, मैं इतने में रसोई का इंतजाम कर रखता हूँ।'

राजलक्ष्मी फीकी हँसी हँस कर बोलीं - 'हाँ, जल्दी-जल्दी इंतजाम कर, बेटे। तेरी देख-रेख के लिए कोई भी नहीं है। अरी ओ मँझली, तुम लोग अब बिहारी की शादी करा दो, देखो न, इसकी शक्ल कैसी हो गई है।'

अन्नपूर्णा ने कहा - 'तुम चंगी हो लो, दीदी - यह तो तुम्हारी ही जिम्मेदारी है।'

राजलक्ष्मी बोलीं - 'मुझे अब यह मौका न मिलेगा। बहन, बिहारी का भार तुम्हीं लोगों पर रहा, इसे तुम लोग सुखी रखना। मैं इसका ऋण नहीं चुका सकी, लेकिन भगवान भला करे इसका।' यह कह कर उन्होंने बिहारी के माथे पर अपना दायाँ हाथ फेर दिया।

आशा से कमरे में न रहा गया। वह रोने के लिए बाहर चली गई। अन्नपूर्णा ने भरी हुई आँखों से बिहारी को स्नेह-भरी दृष्टि से देखा।

राजलक्ष्मी को अचानक न जाने क्या याद आ गया। बोलीं - 'बहू, अरी ओ बहू!' आशा के अंदर आते ही बोलीं - 'बिहारी के खाने का इंतजाम किया या नहीं?'

बिहारी बोला - 'तुम्हारे इस पेटू को सबने पहचान लिया है, माँ। ड्योढ़ी पर आते ही नजर पड़ी, अंडे वाली मछलियाँ लिए वैष्णवी जल्दी-जल्दी अंदर जा रही है, मैं समझ गया, अभी इस घर से मेरी ख्याति मिटी नहीं है।'

और बिहारी ने हँस कर आशा की ओर देखा।

आशा आज शर्माई नहीं। स्नेह से हँसते हुए उसने यह दिल्लगी कबूल की। इस घर के लिए बिहारी क्या है, पहले आशा यह पूरी तरह न जानती थी - बहुत बार एक बे-मतलब का मेहमान समझ कर उसने उसकी उपेक्षा की है, बहुत बार उसकी यह बेरुखी उसके व्यवहार में साफ झलक पड़ी है। उसी अफसोस से धिक्कार से उसकी श्रद्धा और करुणा की तरफ तेजी से उमड़ पड़ी है।

राजलक्ष्मी ने कहा - 'मँझली बहू, यह महाराज के बस की बात नहीं, रसोई की निगरानी तुम्हें करनी पड़ेगी। काफी कड़वा न हो तो अपने इस 'बाँगाल' लड़के को खाना नहीं रुचता।'

बिहारी बोला - 'माँ, तुम्हारी माँ विक्रमपुर की लड़की थीं और तुम नदिया जिले के एक भले घर के लड़के को बांगाल 1 कहती हो! मुझे यह बर्दाश्त नहीं।' (1 .पूर्वी बंगाल के लोगों को बंगाल में मजाक में 'बांगाल' कहते हैं। )

इस पर काफी दिल्लगी रही। बहुत दिनों के बाद महेंद्र के घर की मायूसी का भार मानो हल्का हो गया।

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