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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

आशा स्तब्ध रह गई। रोने की उसमें शक्ति न थी। कमरे के बाहर से बैरे ने आवाज दी- 'माँजी, बाबू के यहाँ से चिट्ठी आई है।'

यह सुना और तुरंत राजलक्ष्मी के मन में आया, 'हो न हो, महेंद्र की अचानक तबीयत खराब हो गई है। इसीलिए वह आ न सका और चिट्ठी भेजी है।' चिंतित और परेशान हो कर उन्होंने कहा, 'देखो तो बहू, महेंद्र ने क्या लिखा है?'

काँपते हुए हाथों से आशा ने बाहर जा कर रोशनी में चिट्ठी खोल कर पढ़ी। उसने लिखा था, इधर कुछ दिनों से तबीयत उचाट है, इसलिए वह घूमने के लिए पछाँह जा रहा है। माँ की बीमारी के लिए खास कोई चिंता की बात नहीं। उन्हें बराबर देखने के लिए नवीन डॉक्टर से कह दिया है। रात को उन्हें नींद न आए या सिर-दर्द हो तो क्या करना होगा, यह भी उसने लिखा था। साथ ही दवाखाने से मँगा कर उसने हल्के और ताकतवर पथ्य के दो डिब्बे भी भेज दिए थे। फिलहाल गिरीडीह के पते पर माँ का हाल लिखने के लिए चिट्ठी में 'पुनश्च' में अनुरोध किया था। चिट्ठी पढ़ कर आशा स्तम्भित हो गई - एक जबरदस्त धिक्कार ने उसके दु:ख को छिपा लिया। यह कठोर समाचार वह माँ को किस तरह सुनाए?

आशा के इस विलंब से राजलक्ष्मी बहुत ही उतावली हो उठीं। बोलीं- 'बहू, मुझे बताओ, महेंद्र ने क्या लिखा है?'

आशा ने आखिर अंदर बैठ कर शुरू से आखिर तक चिट्ठी पढ़ सुनाई। राजलक्ष्मी ने कहा - 'अपनी तबीयत के बारे में उसने क्या लिखा है, जरा वह जगह फिर से पढ़ो तो...'

आशा ने फिर से पढ़ा - 'इधर कुछ दिनों से तबीयत उचाट-सी चल रही थी, इसीलिए मैं...'

राजलक्ष्मी - 'बस, बस, रहने दो। उचाट न हो तबीयत, क्या हो! बुड्ढी माँ मरती भी नहीं और बीमार हो कर उसे तंग करती है। तुम मेरी बीमारी को कहने उससे क्यों गई?' कह कर वह बिस्तर पर लेट गई।

बाहर जूतों की चरमराहट हुई। बैरे ने कहा - 'डॉक्टर आए हैं।'

खाँस कर डॉक्टर साहब अंदर आए। घूँघट निकाल कर आशा पलँग की आड़ में हो गई। डॉक्टर ने पूछा - 'आपको शिकायत क्या है, यह तो कहें।'

राजलक्ष्मी झुँझला कर बोलीं- 'शिकायत क्यों होगी? किसी को मरने भी न देंगे। आपकी दवा से ही क्या मैं अमर हो जाऊँगी?'

डाक्टर ने दिलासा देते हुए कहा - 'अमर चाहे न कर पाऊँ, तकलीफ घटे, इसकी कोशिश तो...

'राजलक्ष्मी कह उठीं - 'तकलीफ की दवा तभी होती थी, जब विधवाएँ जल मरती थीं। अब तो बाँध कर मारना ठहरा। आप जाएँ डॉक्टर साहब, मुझे तंग न करें - मैं अकेली रहना चाहती हूँ।'

डॉक्टर ने डर कर कहा - 'जरा आपकी नब्ज...'

राजलक्ष्मी ने खीझ कर कहा - 'मैं कह रही हूँ, आप जाइए... मेरी नब्ज सही है - यह खतरा नहीं कि यह जल्दी छूटेगी।'

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