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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

लाचार हो कर डॉक्टर कमरे से बाहर चला गया। उसने आशा को बुलाया। उससे बीमारी का सारा ब्यौरा पूछा। सब-कुछ सुन कर गंभीर-सा हो कर वह फिर कमरे में गया। बोला - 'महेंद्र मुझ पर आपके इलाज का भार सौंप गया है। अगर आप इलाज न कराएँगी, तो उसे दु:ख होगा।'

महेंद्र को दु:ख होगा, यह बात राजलक्ष्मी को मजाक जैसी लगी। उन्होंने कहा - 'महेंद्र की इतनी फिक्र न करें आप। दुनिया में हर किसी को दु:ख भोगना पड़ता है। आप जाएँ, मुझे सोने दें।'

डॉक्टर ने समझा, बीमार को ज्यादा तंग करना ठीक नहीं। वह बाहर निकला और जो कुछ करना था, आशा को बता दिया।

आशा जब कमरे में लौटी, तो राजलक्ष्मी बोलीं - 'तुम जरा आराम कर लो जा कर, बिटिया! तमाम दिन मरीज के पास बैठी हो! हारू की माँ से कह दो, बगल के कमरे में बैठेगी।'

आशा राजलक्ष्मी को समझती थी। यह उनके स्नेह का आग्रह नहीं, आदेश था - इसे मान लेने के सिवा चारा नहीं। उसने हारू की माँ को भेज दिया था और अपने कमरे में नीचे लेट गई।

दिन-भर उसने खाया-पिया नहीं। तकलीफ भी थी। उसका तन-मन चूर-चूर हो गया था। उस दिन पड़ोस में दिन में ब्याह के बाजे बजते रहे। अभी फिर शहनाई पर धुन छिड़ी। उस रागिनी से चोट खा कर रात का अँधेरा काँप कर आशा पर बार-बार आघात करने लगा। उसके अपने विवाह के दिन की छोटी-से-छोटी घटना भी सजीव हो उठी और सबने मिल कर रात के आसमान को स्वप्न की छवि से पूर्ण कर दिया। उस दिन की रोशनी, चहल-पहल, भीड़, उस दिन का माला-चन्दकन, नए वस्त्र  और यज्ञ के धुँए की खुशबू; नववधू के शंकित, लज्जित, आनन्दित हृदय का निगूढ़ कंपन - सब कुछ ने स्मृनति का रूप लेकर चारों ओर से जितना ही उसे घेर लिया, उतनी ही हृदय की पीड़ा जीवन्ते होकर जोर डालने लगी। घोर अकाल के दिनों में भूखा बच्चात जैसे भोजन के लिए माँ को मारने लगता है, वैसे ही सुख की स्मृततियाँ अपने खाद्य के लिए रोती हुई आशा की छाती में थपेड़े लगाने लगी। इस स्थिति ने आशा को चैन से न लेटने दिया। वह दोनों हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करने लगी कि दुनिया में उसकी एक-मात्र देवी उसकी मौसी की पावन स्निग्धा मूर्ति उसके हृदय में जाग पड़ी। उसने प्रतिज्ञा की थी कि तपस्विनी को वह फिर से संसार के झमेलों में नहीं खींचेगी। कमरे में रोशनी जला कर वह कागज लिए लगातार आँसू पोंछती हुई लिखने बैठ गई-

'पूजनीय मौसी,

तुम्हारे सिवाय आज मेरा कोई नहीं। एक बार आओ और अपनी इस दुखिया को अपनी गोद में उठा लो, वरना मैं जिऊँगी कैसे! क्या लिखूँ, नहीं जानती। चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।

तुम्हारी प्यारी
चुन्नी'

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