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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

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बिहारी की खोज-खबर ले कर महेंद्र लौटेगा, इस आशा से घर में उसकी रसोई बनी थी। काफी देर हो गई तो दुखी राजलक्ष्मी बेचैन हो उठीं। रात-भर नींद न आई थी, इससे वह काफी थकी थीं, फिर महेंद्र के लिए यह बेताबी उन्हें और कष्ट दे रही थी। यह देख कर आशा ने पूछ-ताछ कर यह पता किया कि महेंद्र की गाड़ी वापिस आ चुकी है। कोचवान से मालूम हुआ, महेंद्र बिहारी के यहाँ से होता हुआ पटलडाँगा के डेरे पर गया है। राजलक्ष्मी ने सुना और दीवार की तरफ करवट बदल कर लेटी रहीं। आशा उनके सिरहाने चित्र-लिखी-सी बैठी पंखा झलती रही और दिन समय पर आशा को खाने के लिए जाने का वह आदेश किया करती थीं - आज कुछ न कहा। कल जब उनकी तबीयत ज्यादा खराब थी, यह देख कर भी महेंद्र विनोदिनी के मोह में चला गया, तो राजलक्ष्मी के लिए दुनिया में कुछ भी करने का मन बुझ गया।

कोई दो बजे आशा बोली-'माँ, दवा पीने का वक्त हो गया।'

राजलक्ष्मी ने कोई जवाब न दिया, चुप रहीं, आशा दवा लाने जाने लगी, तो बोलीं - दवा की जरूरत नहीं बहू, तुम जाओ!'

आशा ने माँ के रूठने का मर्म समझा और उसकी समझ ने उसके हृदय के आंदोलन को दूना कर दिया। आशा से न रहा गया। अपनी रुलाई रोकते-रोकते वह फफक पड़ी। राजलक्ष्मी धीरे-धीरे करवट बदल कर आशा की तरफ हो गई और स्नेह से उसका हाथ सहलाने लगीं। कहा - 'बहू, तुम्हारी उम्र ही क्या है, सुख का मुँह देखने का तुम्हें बहुत समय है। मेरे लिए तुम परेशान मत होओ बिटिया, मैं काफी जी चुकी, अब क्या होगा जी कर?'

आशा की रुलाई और उमड़ आई। उसने आँचल से मुँह दबा लिया। रोगी के घर इस तरह निरानंद दिन मंद गति से कट गया। रूठे रहने के बावजूद दोनों नारियों को अंदर-ही-अंदर आशा थी कि महेंद्र अभी आएगा। खटका होते ही दोनों के शरीर में एक चौंक-सी जगती थी, इसे दोनों समझ रही थीं। धीरे-धीरे सूर्यास्त की आभा धुँधली पड़ गई - कलकत्ता के अंत:पुर में उस गोधूलि की आभा में न तो खिलावट है, और न अँधेरे का आवरण ही होता है - वह विषाद को गहरा बनाती है और निराशा के आँसू सुखा डालती है। कर्म और भरोसे के बल को वह छीन लेती है, लेकिन विश्राम और वैराग्य की शांति नहीं लाती। रोग से दुखी घर की उस सूनी और कुरूप साँझ में आशा पाँव दबाए गई और दीया जला कर कमरे में ले आई। राजलक्ष्मी ने कहा, 'बहू, रोशनी नहीं सुहाती, दीए को कमरे से बाहर रख दो।'

आशा दीये को बाहर रख आई। घना हो कर अँधेरा जब अनंत रात को छोटे-से कमरे में ले आया, तो आशा ने धीमे से राजलक्ष्मी से पूछा - 'माँ, उन्हें खबर भिजवाऊँ क्या?'

राजलक्ष्मी ने सख्त हो कर कहा - 'नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, महेंद्र को खबर मत देना!'

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