उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
|
10 पाठकों को प्रिय 103 पाठक हैं |
नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र ने कहा - 'समझ लो, पी कर ही आया हूँ, मगर इस वजह से अपने हाथ से प्याला देने की कंजूसी मत करो - प्याला मुझे दो।'
शायद जान कर ही विनोदिनी ने निहायत निर्दयता से महेंद्र से इस उच्छ्वास को चोट पहुँचाई। कहा - 'बिहारी भाई साहब इन दिनों कहाँ हैं, मालूम है?'
महेंद्र का चेहरा फक हो गया। बोला - 'कलकत्ता में तो वह नहीं हैं इन दिनों।' विनोदिनी - 'पता क्या है उनका?'
महेंद्र - 'यह तो वह किसी को बताना नहीं चाहता।'
विनोदिनी - 'खोज नहीं की जा सकती पूछ-ताछ करके?'
महेंद्र - 'मुझे ऐसी जरूरत नजर नहीं आती।'
विनोदिनी - 'जरूरत ही क्या सब-कुछ है, बचपन से आज तक की मैत्री क्या कुछ भी नहीं?'
महेंद्र - 'बिहारी मेरा छुटपन का साथी है, तुम्हारी दोस्ती महज दो दिन की है, फिर भी ताकीद तुम्हारी ही ज्यादा है।'
विनोदिनी - 'इसी से तुम्हें शर्म आनी चाहिए। दोस्ती कैसे करनी चाहिए, यह तुम अपने वैसे दोस्त से भी न सीख सके?'
महेंद्र - 'मुझे इसका कतई मलाल नहीं, मगर धोखे से औरत का दिल कैसे लिया जाता है, यह विद्या उससे सीखता तो आज काम आती।'
विनोदिनी - 'केवल चाहने से वह विद्या नहीं सीखी जा सकती, उसकी क्षमता होनी चाहिए।'
महेंद्र - 'गुरुदेव का पता मालूम हो, तो मुझे बताओ, इस उम्र में उनसे दीक्षा ले आऊँ, फिर क्षमता की कसौटी होगी।'
विनोदिनी - 'मित्र का पता ढूँढ़ निकालने की जुर्रत न हो तो प्रेम की बात जुबान पर मत लाओ! बिहारी भाई साहब से तुमने ऐसा बर्ताव किया है कि तुम पर कौन यकीन करेगा?'
महेंद्र - 'मुझ पर पूरा यकीन न होता तो मेरा इतना अपमान न कर पाती - मेरे प्रेम पर अगर इतनी निश्चिंतता न होती, तो शायद मुझे इतनी तकलीफ न होती। बिहारी पालतू न बनने की कला जानता है, वह कला अगर इस बदनसीब को बता देता तो वह एक दोस्त का फर्ज अदा करता।'
'आखिर बिहारी आदमी है, इसी से पालतू नहीं बनता' - यह कह कर विनोदिनी खुले बालों को पीठ पर बिखेर कर खिड़की पर जिस तरह खड़ी थी, खड़ी रही। महेंद्र अचानक खड़ा हुआ। मुट्ठी कस ली और नाराजगी से गरज कर बोला - 'आखिर बार-बार मेरा अपमान करने का साहस क्यों करती हो तुम? इस इतने अपमान का कोई बदला नहीं मिलता, वह तुम्हारी क्षमता के कारण या मेरे गुण से? इतना बड़ा पुरुष मैं नहीं कि चोट करना जानता ही नहीं।'
इतना कह कर वह विनोदिनी की तरफ देखता हुआ जरा देर स्तब्ध रहा, फिर बोला - 'विनोद, चलो यहाँ से चलें - कहीं और। चाहे पछाँह, चाहे किसी पहाड़ पर, जहाँ तुम्हारा जी चाहे - चलो! यहाँ जीना मुहाल है। मैं मरा जा रहा हूँ।'
विनोदिनी बोली - 'चलो, अभी चलें पछाँह।'
महेंद्र - 'पछाँह?'
विनोदिनी - 'किसी खास जगह नहीं। कहीं भी दो दिन रहते-घूमते फिरेंगे।'
महेंद्र - 'ठीक है, आज ही रात को चलो!'
विनोदिनी राजी हो कर महेंद्र के लिए खाना बनाने गई। महेंद्र ने समझ लिया, बिहारी वाली खबर विनोदिनी की नजरों से नहीं गुजरी। अखबार में जी लगाने-जैसी स्थिति अभी उसके मन की नहीं है। कहीं अचानक उसे वह खबर न मालूम हो जाए, इसी उधेड़-बुन में महेंद्र पूरे दिन चौकन्ना रहा।
|