उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र - 'वे हैं कहाँ?'
आशा - 'अपने सोने के कमरे में हैं। नींद नहीं आ रही है।'
महेंद्र - 'अच्छा, चलो, उन्हें देख आऊँ।'
बहुत दिनों के बाद आशा से इतनी-सी बात करके महेंद्र जैसे हल्का हुआ। किसी दुर्भेद्य किले की दीवार-सी नीरवता मानो उन दोनों के बीच स्याह छाया डाले खड़ी थी - महेंद्र की ओर से उसे तोड़ने का कोई हथियार न था, ऐसे समय आशा ने अपने हाथों किले में एक छोटा-सा दरवाजा खोल दिया। आशा सास के कमरे के दरवाजे पर खड़ी रही। महेंद्र गया। उसे असमय में अपने कमरे में आया देख कर राजलक्ष्मी को डर लगा। सोचा, 'कहीं फिर दोनों में कहा-सुनी हो गई और वह चल देने की कहने आया हो।' पूछा - 'अब तक सोया नहीं, महेंद्र?'
महेंद्र ने कहा - 'क्या दमा उखड़ आया है, माँ?'
जमाने के बाद यह सवाल सुन कर उनके मन में मान हो आया। समझीं, 'जब बहू ने जा कर बताया, तो यह माँ का हाल पूछने आया है।' इस आवेश से उनका कलेजा और भी काँपने लगा। किसी तरह बोलीं - 'तू सो जा कर, यह कुछ नहीं।'
महेंद्र - 'नहीं, नहीं एक बार जाँच देखना अच्छा है। यह बीमारी टालने की नहीं।'
महेंद्र को पता था, माँ को हृदय की बीमारी है। इस वजह से तथा उनके चेहरे का लक्षण देख कर उसे घबराहट हुई।
माँ ने कहा - 'जाँचने की जरूरत नहीं। मेरी यह बीमारी नहीं छूटेगी।'
महेंद्र ने कहा - 'खैर, आज की रात के लिए सोने की दवा ला देता हूँ। सवेरे अच्छी तरह से देखा जाएगा।'
राजलक्ष्मी - 'दवा ढेर खा चुकी, दवा से कुछ होता-जाता नहीं। बहुत रात हो गई, तुम सो जाओ।'
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