उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र - 'तुम्हें जरा चैन तो मिले।'
इस पर राजलक्ष्मी ने दरवाजे पर खड़ी बहू को संबोधित करके कहा - 'बहू, तुम रात में महेंद्र को तंग करने के लिए यहाँ क्यों ले आईं!'
कहते-कहते उनकी साँस की तकलीफ और भी बढ़ गई। तब आशा कमरे में आई। उसने कोमल किन्तु दृढ़ स्वर में महेंद्र से कहा - 'तुम सोओ जा कर। मैं माँ के पास रहूँगी।'
महेंद्र ने आशा को अलग बुला कर कहा - 'मैंने एक दवा लाने भेजा है। दो खुराक दवा होगी। एक से अगर नींद न आए तो घंटे बाद दूसरी खुराक देना। रात में साँस और बढ़े तो मुझे खबर देना।'
कह कर महेंद्र अपने कमरे में चला गया। आशा आज जिस रूप में उसके सामने प्रकट हुई, उसके लिए वह रूप नया था। इस आशा में संकोच नहीं, दीनता नहीं - यह आशा अपने अधिकार में खड़ी हुई थी। अपनी स्त्री की महेंद्र ने अपेक्षा की थी, मगर घर की बहू के लिए संभ्रम हुआ।
आशा ने जवाब न दिया। पीछे बैठ कर पंखा झलने लगी। राजलक्ष्मी ने कहा - 'तुम सोओ जा कर, बहू।'
आशा धीमे से बोली - 'मुझे यहीं रहने को कह गए हैं।'
आशा समझती थी कि यह जान कर माँ खुश होंगी कि महेंद्र उसे माँ की सेवा के लिए छोड़ गया है।
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