उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
कुछ रात बीती, तो उसके कमरे के दरवाजे पर थपकी पड़ी - 'बहू, बहू, दरवाजा खोलो!'
आशा ने झट-पट दरवाजा खोल दिया। दमे की मरीज राजलक्ष्मी सीढ़ियाँ चढ़ कर तकलीफ से साँस ले रही थीं। कमरे में जा कर वह बिस्तर पर बैठ गईं और वाक्-शक्ति लौटते ही बोलीं - 'तुम्हारी अक्ल की बलिहारी! ऊपर कमरा बंद किए पड़ी हो! यह क्या राग-रोष का समय है! इस मुसीबत के बाद भी तुम्हारे भेजे में बुद्धि नहीं आई! जाओ नीचे जाओ!'
आशा ने धीमे से कहा - 'उन्होंने कहा है, एकांत में रहेंगे।'
राजलक्ष्मी - 'कह दिया और हो गया। गुस्से में जाने क्या कह गया, उसी पर तुम तुनक बैठोगी। ऐसी तुनक-मिजाज होने से काम नहीं चलेगा। जाओ, जल्दी जाओ।'
दु:ख के दिनों में सास को बहू से लाज नहीं। जो भी तरकीब उन्हें आती है, उसी से महेंद्र को किसी तरह बाँधना पड़ेगा। आवेग से बातें करते हुए राजलक्ष्मी का फिर से दम फूलने लगा। अपने को थोड़ा-बहुत सँभाल कर उठीं। आशा भी आजिज न हो कर पकड़ कर उन्हें नीचे लिवा ले गई। उनके सोने के कमरे में आशा ने उन्हें बिठा दिया और पीठ की तरफ तकिए लगाने लगी। राजलक्ष्मी बोलीं - 'रहने दो बहू, किसी को भेज दो। तुम जाओ!'
अबकी आशा जरा भी न हिचकी। सास के कमरे से निकल कर सीधे महेंद्र के कमरे में गई। महेंद्र के सामने मेज पर किताब खुली पड़ी थी - वह मेज पर दोनों पैर रख कर कुर्सी पर माथा टेके ध्यान से न जाने क्या सोच रहा था। उसके पीछे पैरों की आहट हुई। चौंक कर उसने पीछे की ओर देखा। मानो किसी के ध्यान में लीन था - एकाएक धोखा हुआ कि वह आ गई। आशा को देख कर महेंद्र सँभला। खुली किताब को उसने अपनी गोद में खींच लिया।
मन-ही-मन महेंद्र को अचरज हुआ। इन दिनों ऐसे बेखटके तो आशा उसके सामने नहीं आती - अचानक भेंट हो जाती है तो वह वहाँ से चल देती है। आज इतनी रात को वह इस सहज भाव से उसके कमरे में आ गई, ताज्जुब है! किताब से आँखें हटाए बिना ही महेंद्र ने समझा, आज आशा के लौट जाने का लक्षण नहीं। वह महेंद्र के सामने आ कर स्थिर भाव से खड़ी हुई। इस पर महेंद्र से मान करते न बना। सिर उठा कर उसने देखा। आशा ने साफ शब्दों में कहा - 'माँ का दम उखड़ आया है। चल कर एक बार देख लो तो अच्छा हो!'
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