उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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अगले दिन महेंद्र ने माँ से कहा - 'माँ, पढ़ने-लिखने के लिए मुझे कोई एकांत कमरा चाहिए। मैं चाची वाले कमरे में रहूँगा।'
माँ खुश हो गई, 'तब तो महेंद्र अब घर में ही रहा करेगा। लगता है, बहू से सुलह हो गई। भला अपनी ऐसी अच्छी बहू की सदा उपेक्षा कर सकता है। ऐसी लक्ष्मी को छोड़ कर उस मायाविनी डायन के पीछे वह कब तक भूला रह सकता है?'
माँ ने झट कहा - 'हर्ज क्या है, रहो!'
उन्होंने तुरंत कुंजी निकाली, ताला खोला और झाड़-पोंछ की धूम मचा दी- 'बहू, अरी ओ बहू, कहाँ गई?' बड़ी कठिनाई से घर के एक कोने में दुबकी हुई बहू को बरामद किया गया - 'एक धुली चादर ले आओ! इस कमरे में मेज नहीं है, लगानी पड़ेगी। इस रोशनी से काम नहीं चलेगा, ऊपर से अपना वाला लैंप भिजवा दो।' इस तरह दोनों ने मिल कर उस घर के राजाधिराज के लिए अन्नपूर्णा के कमरे में राज-सिंहासन तैयार कर दिया। महेंद्र ने सेवा में लगी हुई माँ-बहू की तरफ ताका तक नहीं, वहीं किताब लिए जरा भी समय बर्बाद न करके गंभीर हो कर पढ़ने बैठ गया।
शाम को भोजन के बाद वह फिर बैठा। सोना ऊपर के कमरे में होगा या वहीं, कोई न समझ सका। बड़े जतन से राजलक्ष्मी ने आशा को मूरत की तरह सजा कर कहा - 'बहू, महेंद्र से पूछ तो आओ, उसका बिस्तर क्या ऊपर लगेगा?' इस प्रस्ताव पर आशा का पाँव हर्गिज न हिला, वह सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही। नाराज हो कर राजलक्ष्मी खरी-खोटी सुनाने लगीं। बड़े कष्ट से आशा दरवाजे तक गई, पर उससे आगे न बढ़ सकी। दूर से बहू का वह रवैया देख कर राजलक्ष्मी नाराज हो कर इशारे से निर्देश करने लगीं। मरी-सी हो कर आशा कमरे में गई। आहट पा कर किताबों से सिर न उठा कर ही महेंद्र ने कहा - 'मुझे अभी देर है - फिर तड़के से ही उठ कर पढ़ना है - मैं यहीं सोऊँगा।' शर्म की हद हो गई! आशा महेंद्र को ऊपर सुलाने के लिए थोड़े ही गिड़गिड़ाने आई थी।
वह निकली। निकलते ही खीझ कर राजलक्ष्मी ने पूछा- 'क्यों, क्या हुआ?'
आशा बोली - 'अभी पढ़ रहे हैं। वे यहीं सोएँगे।'
कह कर वह अपने अपमानित शयन-कक्ष में चली गई। कहीं उसे चैन नहीं - मानो सब कुछ दोपहर की धरती-सा तप उठा है।
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