उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र ने किसी तरफ नहीं देखा, सीधा विनोदिनी के पास जा कर बोला - 'विनोद, इस लोक निंदा के खुले मुँह में तुम्हें अकेला छोड़ जाऊँ, ऐसा कायर मैं नहीं हूँ। जैसे भी हो, तुम्हें यहाँ से ले ही जाना पड़ेगा। बाद में तुम मुझे छोड़ देना चाहो, छोड़ देना! मैं कुछ भी न कहूँगा। तुम्हारा बदन छू कर मैं कसम खाता हूँ, तुम जैसा चाहोगी, वही होगा। दया कर सको, तो जीऊँगा और न कर सको, तो तुम्हारी राह से दूर हट जाऊँगा। दुनिया में अविश्वास के काम मैंने बहुतेरे किए हैं। पर आज तुम मुझ पर अविश्वास न करो। अभी हम कयामत के मुँह पर खड़े हैं, यह धोखे का समय नहीं।'
विनोदिनी ने बड़े ही सहज भाव से दृढ़ हो कर कहा - 'मुझे अपने साथ ले चलो। गाड़ी है?'
महेंद्र ने कहा - 'है।'
विनोदिनी की सास ने बाहर आ कर कहा - 'महेंद्र, तुम मुझे नहीं पहचानते, मगर तुम हम लोगों के बिराने नहीं हो। तुम्हारी माँ राजलक्ष्मी हमारे ही गाँव की लड़की है, गाँव के रिश्ते से मैं उसकी मामी होती हूँ। मैं तुमसे पूछती हूँ, यह तुम्हारा क्या रवैया है! घर में तुम्हारी स्त्री है, माँ है और तुम ऐसे बेहया पागल बने फिरते हो? भले समाज में तुम मुँह कैसे दिखाओगे?'
महेंद्र निरुत्तर हो गया तो बुढ़िया बोली - 'जाना ही हो तो अभी चल दो, तुरंत। मेरे घर के बरामदे पर खड़े न रहो - पल-भर की भी देर न करो। अब।'
कह कर बुढ़िया भीतर गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। बे-नहाई, भूखी, गंदे कपड़े पहने विनोदिनी खाली हाथों गाड़ी पर जा सवार हुई। जब महेंद्र भी चढ़ने लगा तो वह बोली - 'नहीं, स्टेशन बहुत करीब है, तुम पैदल चलो।'
महेंद्र ने कहा - 'फिर तो गाँव के सब लोग मुझे देखेंगे।'
विनोदिनी ने कहा - 'अब भी लाज रह गई है क्या?'
और गाड़ी का दरवाजा बंद करके विनोदिनी ने गाड़ीवान से कहा - 'स्टेशन चलो!' गाड़ीवान ने पूछा - 'बाबू नहीं चलेंगे?'
महेंद्र जरा आगा-पीछा करने के बाद जाने की हिम्मत न कर सका। गाड़ी चल दी। गाँव की गैल छोड़ कर महेंद्र सिर झुकाए खेतों के रास्ते चला।
गाँव की बहुओं का नहाना-खाना हो चुका था। जिन प्रौढ़ाओं को देर से फुरसत मिली, केवल वही अँगोछा और तेल का कटोरा लिए बौराए आम के महमह बगीचे की राह घाट को जा रही थीं।
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