उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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महेंद्र कहाँ चला गया, इस आशंका से राजलक्ष्मी ने खाना-सोना छोड़ दिया। संभव-असंभव सभी जगहों में साधुचरण उसे ढूँढ़ता फिरने लगा - ऐसे में विनोदिनी को ले कर महेंद्र कलकत्ता आया। पटलडाँगा के मकान में उसे रख कर वह अपने घर गया।
माँ के कमरे में जा कर देखा, कमरा लगभग अँधेरा है। लालटेन की ओट दी गई है। राजलक्ष्मी मरीज जैसी बिस्तर पर पड़ी है और पायताने बैठी आशा उनके पाँव सहला रही है। इतने दिनों के बाद घर की बहू को सास के पैरों का अधिकार मिला है।
महेंद्र के आते ही आशा चौंकी और कमरे से बाहर चली गई। महेंद्र ने जोर दे कर सारी दुविधा हटा कर कहा - 'माँ, मुझे यहाँ पढ़ने में सुविधा नहीं होती, इसलिए मैंने कॉलेज के पास एक डेरा ले लिया है। वहीं रहूँगा।'
बिस्तर के एक ओर का इशारा करके राजलक्ष्मी ने कहा - 'जरा बैठ जा।'
महेंद्र सकुचाता हुआ बिस्तर पर बैठ गया। बोलीं - 'जहाँ तेरा जी चाहे, तू रह। मगर मेरी बहू को तकलीफ मत देना!'
महेंद्र चुप रहा।
राजलक्ष्मी बोलीं - 'अपना भाग ही खोटा है, तभी मैंने अपनी अच्छी बहू को नहीं पहचाना।' कहते-कहते राजलक्ष्मी का गला भर आया - 'लेकिन इतने दिनों तक समझता, प्यार करके तूने उसे इस तकलीफ में कैसे डाला?'
राजलक्ष्मी से और न रहा गया। रो पड़ीं।
वहाँ से उठ भागे तो जी जाए महेंद्र। लेकिन तुरंत भागते न बना। माँ के बिस्तर के एक किनारे चुपचाप बैठा रहा।
बड़ी देर के बाद राजलक्ष्मी ने पूछा - 'आज रात तो यहीं रहेगा न?'
महेंद्र ने कहा - 'नहीं।'
राजलक्ष्मी ने पूछा - 'कब जाओगे?'
महेंद्र बोला - 'बस अभी।'
तकलीफ से राजलक्ष्मी उठीं। कहा - 'अभी? बहू से एक बार मिलेगा भी नहीं? अरे बेहया, तेरी बेरहमी से मेरा तो कलेजा फट गया।'
कह कर राजलक्ष्मी टूटी डाल-सी बिस्तर पर लेट गईं।
महेंद्र उठ कर बाहर निकला। दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़ कर वह अपने ऊपर के कमरे की ओर चला। वह चाहता नहीं था कि आशा से भेंट हो।
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