लोगों की राय

उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

103 पाठक हैं

नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

बिहारी - 'पोथी क्या यों ही खोले बैठा हूँ, भाभी? हृदय को हृदय के कानून से समझने की जिम्मेदारी अंतर्यामी पर ही रहे, हम पोथी के अनुसार न चलें तो अंत में पार नहीं पड़ने का।'

विनोदिनी - 'बेहया हो कर कहती हूँ सुनो, तुम मुझे लौटा सकते हो। महेंद्र मुझे चाहता है, मगर वह अंधा है, मुझे नहीं समझता। कभी यह लगा था कि तुमने मुझे समझा है - कभी तुमने मुझ पर श्रद्धा की थी - सच-सच बताओ, आज इस बात को छिपाने की कोशिश मत करो!'

बिहारी - 'सच है, मैंने श्रद्धा की थी।'

विनोदिनी - 'तुमने गलती नहीं की थी भाई साहब! लेकिन जब समझ ही लिया, जब श्रद्धा की ही थी, तो फिर वहीं क्यों रुक गए? मुझे प्यार करने में तुम्हें क्या बाधा थी? आज मैं बेहया बन कर तुम्हारे पास आई हूँ और बेहया हो कर ही तुमसे कहती हँ, तुमने भी मुझे प्यार क्यों नहीं किया? मेरी फूटी तकदीर! या तुम भी आशा की मुहब्बत में गर्क हो गए! न, नाराज नहीं हो सकते तुम! बैठो, आज मैं छिपा कर कुछ नहीं कहना चाहती। आशा को तुम प्यार करते हो, इस बात का जब खुद तुम्हें भी पता न था, मैं जानती थी। लेकिन मैं समझ नहीं पाती कि आशा में तुम लोगों ने देखा क्या है! बुरा या भला - उसके पास है क्या? विधाता ने क्या मर्दों को जरा भी अंतर्दृष्टि नहीं दी है? तुम लोग आखिर क्या देख कर, कितना देख कर दीवाने हो जाते हो।'

बिहारी उठ खड़ा हुआ बोला - 'आज तुम जो कुछ भी कहोगी, आदि से अंत तक मैं सब सुनूँगा, मगर इतनी ही विनती है, जो बात कहने की नहीं है, वह मत कहो।' विनोदिनी - 'तुम्हे कहाँ दुखता है, जानती हूँ भाई साहब। लेकिन मैंने जिसकी श्रद्धा पाई थी और जिसका प्रेम पाने से मेरी जिन्दगी बन सकती थी, लाज-डर, सबको बाला-ए-ताक धर कर उसके पास दौड़ी आई हूँ - कितनी बड़ी वेदना ले कर आई हूँ, कैसे बताऊँ? मैं बिलकुल सच कहती हूँ, तुम आशा को प्यार करते होते तो उसकी आज यह गत न हुई होती।'

बिहारी फक रह गया। बोला - 'आशा को क्या हुआ? कौन-सी गत की तुमने।'

विनोदिनी - 'अपना घर-बार छोड़ कर महेंद्र मुझे ले कर कल चल देने को तैयार है।'

बिहारी एकाएक चीख पड़ा - 'यह हर्गिज नहीं हो सकता, हर्गिज नहीं।'

विनोदिनी-'हर्गिज नहीं? महेंद्र को रोक कौन सकता है?'

बिहारी - 'तुम रोक सकती हो।'

विनोदिनी जरा देर चुप रही, उसके बाद बिहारी पर अपनी आँखें रोक कर कहा - 'आखिर किसके लिए रोकूँ? तुम्हारी आशा के लिए? मेरा अपना सुख-दु:ख है ही नहीं? तुम्हारी आशा का भला हो, तुम्हारे महेंद्र की दुनिया बनी रहे - यह सोच कर मैं अपने आज का अपना सारा दावा त्याग दूँ। इतनी भली मैं नहीं हूँ- इतना शास्त्र मैंने नहीं पढ़ा। मैं छोड़ दूँगी तो उसके बदले मुझे क्या मिलेगा?'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book