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आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

धीरे-धीरे बिहारी के चेहरे का भाव सख्त हो आया। बोला - 'तुमने बहुत साफ-साफ कहने की कोशिश की है, अब मैं भी एक बात स्पष्ट बताऊँ। आज जो भी हरकत तुमने की है, और जो बेहूदा बातें कह रही हो, इसकी अधिकांश ही उस साहित्य से चोरी की हुई हैं, जो तुमने पढ़ा है। इसका पचहत्तर फीसदी नाटक और उपन्यास है।'

विनोदिनी - 'नाटक! उपन्यास!'

बिहारी - 'हाँ, नाटक, उपन्यास। वह भी वैसे महत्व का नहीं। तुम सोचती हो, यह सारा कुछ तुम्हारा निजी है - बिलकुल गलत। यह सब छापेखाने की प्रति-ध्वनि है। तुम अगर निहायत अबोध, सीधी-सादी बालिका होतीं, तो भी संसार में प्रेम से वंचित न होतीं - लेकिन नाटक की नायिका रंगमंच पर ही फबती है, उससे घर का काम नहीं चलता।'

कहाँ है विनोदिनी का वह तीखा तेज, दारुण दर्प! मंत्रबिद्ध नागिन-सी वह स्तब्ध हो कर झुक गई। बड़ी देर के बाद बिहारी की ओर देखे बिना ही शांत और नम्र स्वर में बोली - 'तो मैं क्या करूँ?'

बिहारी बोला - 'अनोखा कुछ न करो। एक सामान्य स्त्री के अच्छे विचार से जो आए, वही करो। अपने घर चली जाओ।'

विनोदिनी ने कहा - 'कैसे जाऊँ?'

बिहारी - 'गाड़ी में तुम्हें औरतों वाले डिब्बे में बिठा कर तुम्हारे घर के स्टेशन तक छोड़ आऊँगा मैं।'

विनोदिनी - 'आज की रात यहीं रहूँ?'

बिहारी - 'नहीं, अपने ऊपर मुझे इतना विश्वास नहीं।'

सुनते ही विनोदिनी कुर्सी से उतर कर जमीन पर लोट गई। बिहारी के दोनों पैरों को जी-जान से अपनी छाती से चिपका कर बोली - 'इतनी कमजोरी तो रखो भाई साहब! बिलकुल पत्थर के देवता - जैसे पवित्रा मत बनो। बुरे को प्यार करके जरा-सा बुरा तो बनो।'

कह कर विनोदिनी ने बिहारी के पाँवों को बार-बार चूमा। विनोदिनी के ऐसे आकस्मिक और अकल्पनीय व्यवहार से जरा देर के लिए तो बिहारी मानो अपने को जब्त न कर सका। उसकी तन-मन की सारी गाँठें ढीली पड़ गईं। बिहारी की इस विह्वल दशा का अनुभव करके विनोदिनी ने उसके पैर छोड़ दिए, अपने घुटनों के बल ऊँची हो कर उसने कुर्सी पर बैठे बिहारी की गर्दन को बाँहों से लपेट लिया। बोली - 'मेरे सर्वस्व, जानती हूँ, तुम मेरे सदा के लिए नहीं, लेकिन आज एक पल के लिए तुम मुझे प्यार करो! फिर मैं अपने उसी जंगल मे चली जाऊँगी - किसी से कुछ भी न चाहूँगी। मरने तक याद रखने लायक एक कोई चीज दो।'

आँखें मूँद कर विनोदिनी ने अपने होंठ बिहारी की ओर बढ़ा दिए। जरा देर के लिए दोनों सन्न रह गए, सारा घर सन्नाटा। इसके बाद धीरे-धीरे विनोदिनी की बाँहें हटा कर बिहारी दूसरी कुर्सी पर जा बैठा और रुँधी-सी आवाज साफ करके कहा - 'रात को एक बजे एक पैसेंजर गाड़ी है।'

विनोदिनी जरा देर खामोश रही, फिर बोली - 'उसी गाड़ी से चली चलूँगी।' इतने में नंगे पाँव, खाली बदन अपना गोरा स्वस्थ शरीर लिए बसन्त बिहारी के पास आ खड़ा हुआ और गंभीर हो कर विनोदिनी को देखने लगा।

बिहारी ने पूछा - 'सोने नहीं गया, बसन्त?'

बसन्त ने कोई उत्तर न दिया। उसी तरह गंभीर खड़ा रहा। विनोदिनी ने अपने दोनों हाथ फैला दिए। बसन्त ने पहले तो जरा आगा-पीछा किया, फिर विनोदिनी के पास चला गया। विनोदिनी उसे छाती से लगा कर जोर से रो पड़ी।

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