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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

बसन्त ने कहा - 'छ:।'

'जीत गए।'

'यह बेंच कितनी लंबी है, इस किताब का वजन क्या होगा'- ऐसे सवालों से वह बसंत के दिमाग के विकास की चेष्टा कर रहा था कि बैरे ने आ कर कहा -'बाबूजी, एक औरत....'

उसका कहना खत्म भी न हो पाया था कि विनोदिनी कमरे में आ गई।

बिहारी ने अचरज से कहा - 'यह क्या, भाभी?'

विनोदिनी ने पूछा - 'तुम्हारे यहाँ अपनी सगी कोई स्त्री नहीं?'

बिहारी - 'अपनी-सगी भी कोई नहीं, पराई भी नहीं। बुआ है, गाँव में रहती है।'

विनोदिनी - 'तुम मुझे अपने गाँव वाले घर ले चलो।'

बिहारी - 'किस नाते?'

विनोदिनी - 'नौकरानी के नाते।'

बिहारी - 'बुआ को कैसा लगेगा! उन्होंने नौकरानी की जरूरत तो बताई नहीं है। खैर। पहले यह तो बताओ, अचानक ऐसा इरादा कैसे? बसंत, तुम जा कर सो रहो।'

बसंत चला गया।

विनोदिनी बोली - 'बाहरी घटना से तुम अंदर की बात जरा भी नहीं समझ सकोगे।'

बिहारी - 'न समझूँ तो भी क्या, गलत ही समझ लूँ तो क्या हर्ज है।'

विनोदिनी - 'अच्छी बात है, न हो गलत ही समझना। महेंद्र मुझे प्यार करता है।'

बिहारी - 'यह खबर कुछ नई तो है नहीं। और न कोई ऐसी ही खबर है कि दोबारा सुनने को जी चाहे।'

विनोदिनी - 'बार-बार सुनाने की इच्छा भी नहीं अपनी। इसलिए तुम्हारे पास आई हूँ, मुझे पनाह दो।'

बिहारी - 'इच्छा नहीं है? यह आफत आखिर ढाई किसने! महेंद्र जिस रास्ते जा रहा था। उससे उसे डिगाया किसने?'

विनोदिनी - 'मैंने डिगाया है। तुमसे कुछ नहीं छिपाऊँगी, यह सारी करतूत मेरी है। मैं बुरी हूँ या जो कुछ भी हूँ जरा मुझ - जैसे हो कर मेरे मन की बात समझने की कोशिश करो। मैंने अपने जी की ज्वाला से महेंद्र की दुनिया में आग लगाई है। एक बार ऐसा लगा कि मैं महेंद्र को प्यार करती हूँ, लेकिन गलत है।'

बिहारी - 'अगर प्यार ही हो तो भला कोई ऐसी आग लगा सकती है?'

विनोदिनी - 'भाई साहब, यह सब आपके शास्त्र की बात है। ये बातें सुनने जैसी मति अभी अपनी नहीं हुई। अपनी पोथी पटक कर एक बार अंतर्यामी की तरह मेरे दिल की दुनिया में बैठो। आज मैं अपना भला-बुरा, सब तुमसे कहना चाहती हूँ।'

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