लोगों की राय

उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

103 पाठक हैं

नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

सुबह का काम-काज चुक गया तो राजलक्ष्मी ने महेंद्र को बुलवा दिया। महेंद्र समझ गया, कल रात की घटना के बारे में कहेंगी। इस बीच विनोदिनी से चिट्ठी का उत्तर पा कर मन बेकल हो गया। उसी आघात के प्रतिघातस्वरूप उसका लहराया हृदय विनोदिनी की ओर जोरों से दौड़ रहा था। इस स्थिति में माँ से सवाल-जवाब करना उसके लिए कठिन था। वह खूब समझ रहा था, जहाँ माँ ने विनादिनी के बारे में उसे फटकार बताई कि वह विद्रोही की तरह सच बता देगा और सच कहते ही भीषण गृह-युद्ध शुरू हो जाएगा। लिहाजा इस समय कहीं बाहर जा कर सारी बातों पर ठीक से गौर कर लेना ठीक है। महेंद्र ने नौकर से कहा - 'माँ से जा कर कह दे, आज कॉलेज में मुझे विशेष काम से, जल्दी जाना है; लौट कर मिलूँगा।'

और तुरंत कपड़े पहन कर बिना खाए-पिए वह भाग खड़ा हुआ। विनोदिनी की जिस सख्त चिट्ठी को वह आज सुबह से ही बारंबार पढ़ता और जेब में लिए-लिए फिरता रहा, जल्दी में वह चिट्ठी कुरते में ही छोड़ कर चला गया।

एक झमक बारिश हो गई, फिर घुमड़न-सी हो रही। विनोदिनी का मन आज खीझा हुआ था। उसका मन भी जब ऐसा होता है तो वह काम ज्यादा करती है। इसीलिए आज घर भर में जितने भी कपड़े मिले सबको बटोर कर निशान लगा रही थी। आशा से कपड़े माँगने गई तो उसके चेहरे का भाव देख कर उसका मन और भी बिगड़ गया। संसार में अगर कसूरवार ही ठहरना है तो उसकी सारी जहमतें वही क्यों झेले, कसूर के सुखों से ही क्यों वंचित हो?

झमाझम बारिश शुरू हो गई। विनादिनी कमरे के फर्श पर आ बैठी। सामने कपड़ों का पहाड़ लगा था। नौकरानी एक-एक कपड़ा उसकी ओर बढ़ा रही थी और वह स्याही से उस पर हरफ उगा रही थी।

महेंद्र ने कोई आवाज न दी। दरवाजा खोल कर सीधा कमरे में दाखिल हो गया। नौकरानी घूँघट निकाल कर वहाँ से भाग गई।

विनोदिनी ने अपनी गोद पर का कपड़ा उतार फेंका और बिजली-सी लपक खड़ी हुई। बोली - 'जाओ, मेरे कमरे से चले जाओ!'

महेंद्र बोला - 'क्यों, मैंने क्या किया है?'

विनोदिनी - 'क्या किया है! डरपोक, कायर! कुछ करने की जुर्रत ही कहाँ है तुममें! न प्यार करना आता है, न कर्तव्य का पता है। बीच में मुझे क्यों लोगों की नजरों में गिरा रहे हो?'

महेंद्र - 'तुम्हें प्यार नहीं किया, यह क्या कहती हो?'

विनोदिनी - 'मैं यही कह रही हूँ - चोरी से, चुप-चुप, झोप-तोप, एक बार इधर तो एक बार उधर - तुम्हारी यह चोर-जैसी हरकत देख कर मुझे नफरत हो गई है। अब अच्छा नहीं लगता। तुम जाओ यहाँ से ।'

महेंद्र मुरझा गया। बोला - 'तुम मुझसे नफरत करती हो, विनोद?'

विनोदिनी - 'हाँ, करती हूँ।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book