उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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राजलक्ष्मी ने आज सुबह से विनोदिनी को बुलाया नहीं। रोज की तरह विनोदिनी भंडार में गई। राजलक्ष्मी ने सिर उठा कर उसकी ओर नहीं देखा।
यह देख कर भी उसने कहा - 'बुआ, तबीयत ठीक नहीं है, क्यों? हो भी कैसे? कल रात भाई साहब ने जो करतूत की! पागल-से आ धामके। मुझे तो फिर नींद ही न आई।'
राजलक्ष्मी मुँह लटकाए रहीं। हाँ-ना कुछ न कहा।
विनोदिनी बोली - 'किसी बात पर चख-चख हो गई होगी आशा से। कुछ भी कहो! बुआ, नाराज मत होना, तुम्हारे बेटे में चाहे हजारों सिफ्त हों, धीरज जरा भी नहीं। इसीलिए मुझसे हरदम झड़प ही होती रहती है।'
राजलक्ष्मी ने कहा - 'बहू, झूठ बकती जा रही हो तुम, मुझे आज कोई भी बात नहीं सुहाती।'
विनोदिनी बोली - 'मुझे भी कुछ नहीं सुहा रहा है, बुआ। तुम्हारे दिल को ठेस लगेगी, इसी डर से झूठ से मैं तुम्हारे बेटे का गुनाह ढँकना चाहती थी। लेकिन इस हद को पहुँच गया है कि अब ढँका नहीं रहना चाहता।'
राजलक्ष्मी - 'अपने बेटे का गुण-दोष मुझे मालूम है, मगर तुम कैसी मायाविनी हो, यह पता न था।'
विनादिनी न जाने क्या कहने जा रही थी कि अपने को जब्त कर गई।
बोली - 'यह सच है बुआ, कोई किसी को नहीं जानता; अपने मन को ही क्या सब कोई जानते हैं? कभी क्या तुम्हीं ने अपनी बहू से डाह करके इस मायाविनी के जरिये अपने बेटे का मन मोहने की कोशिश नहीं कराई थी? जरा सोच कर देखो!'
राजलक्ष्मी आग-सी दहक उठीं। बोलीं - 'अभागिन, लड़के के लिए तू माँ पर ऐसा आरोप लगा सकती है? जीभ गल कर नहीं गिरेगी तेरी?'
विनोदिनी उसी अडिग भाव से बोली - 'बुआ, हम हैं मायाविनी की जात - मुझमें कौन-सी माया थी मैं ठीक-ठाक नहीं जानती थी, तुम्हें पता था, तुममें भी क्या माया थी - इसका तुम्हें ठीक पता न था, मैं जानती थी। मगर माया जरूर थी, नहीं तो यह घटना न घटती। मैंने भी कुछ जानते और कुछ अजानते फंदा डाला था। और फंदा तुमने भी कुछ तो जान कर बिना जाने डाला था। हमारी जात का धर्म ही ऐसा है - हम मायाविनी हैं।'
क्रोध के मारे राजलक्ष्मी का कंठ जकड़ गया। वह तेजी से कमरे के बाहर निकल गईं।
विनोदिनी सूने कमरे में जरा देर स्थिर खड़ी रही। उसकी आँखों में आग जल उठी।
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