ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
सत्यं ज्ञानमनन्तं च सच्चिदानन्दसंज्ञितम्।
निर्गुणो निरुपाधिश्चाव्यय: शुद्धो निरञ्जन:।।
न रक्तो नैव पीतश्च न श्वेतो नील एव च।
न ह्रस्वो न च दीर्घश्च न स्थूल: सूक्ष्म एव च।।
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
तदेव परमं प्रोक्तं ब्रह्मैव शिवसंज्ञकम्।।
आकाशं व्यापकं यद्वत् तथैव व्यापकं त्विदम्।
मायातीतं परात्मानं द्वन्द्वातीतं विमत्सरम्।।
तत्प्राप्तिश्च भवेदत्र शिवज्ञानोदयाद् ध्रुवम्।
भजनाद्वा शिवस्यैव सूक्ष्ममत्या सतां द्विजा:।।
संसार में ज्ञान की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है परंतु भगवान् का भजन अत्यन्त सुकर माना गया है। इसलिये संतशिरोमणि पुरुष मुक्ति के लिये भी शिव का भजन ही करते हैं। ज्ञानस्वरूप मोक्षदाता परमात्मा शिव भजन के ही अधीन हैं। भक्ति से ही बहुत से पुरुष सिद्धि लाभ करके प्रसन्नतापूर्वक परम मोक्ष पा गये हैं। भगवान् शम्भु की भक्ति ज्ञान की जननी मानी गयी है जो सदा भोग और मोक्ष देनेवाली है। वह साधु महापुरुषों के कृपाप्रसाद से सुलभ होती है। उत्तम प्रेम का अंकुर ही उसका लक्षण है। द्विजो! वह भक्ति भी सगुण और निर्गुण के भेद से दो प्रकार की जाननी चाहिये। फिर वैधी और स्वाभाविकी-ये दो भेद और होते हैं। इनमें वैधी की अपेक्षा स्वाभाविकी श्रेष्ठ मानी गयी है। इनके सिवा नैष्ठिकी औरअनैष्ठिकी के भेद से भक्ति के दो प्रकार और बताये गये हैं। नैष्ठिकी भक्ति छ: प्रकार की जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक ही प्रकारकी। फिर विहिता और अविहिता के भेद से विद्वानों ने उसके अनेक प्रकार माने हैं। उनके बहुत से भेद होने के कारण यहाँ विस्तृत वर्णन नहीं किया जा रहा है। उन दोनों प्रकार की भक्तियों के श्रवण आदि भेद से नौ अंग जानने चाहिये। भगवान् की कृपाके बिना इन भक्तियों का सम्पादन होना कठिन है और उनकी कृपा से सुगमतापूर्वक इनका साधन होता है। द्विजो! भक्ति और ज्ञान को शम्भु ने एक-दूसरे से भिन्न नहीं बताया है। इसलिये उनमें भेद नहीं करना चाहिये। ज्ञान और भक्ति दोनों के ही साधक को सदा सुख मिलता है। ब्राह्मणो! जो भक्ति का विरोधी है उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। भगवान् शिव की भक्ति करनेवाले को ही शीघ्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्त होता है। अत: मुनीश्वरो! महेश्वर की भक्ति का साधन करना आवश्यक है। उसी से सबकी सिद्धि होगी, इसमें संशय नहीं है। महर्षियो! तुमने जो कुछ पूछा था, उसीका मैंने वर्णन किया है। इस प्रसंग को सुनकर मनुष्य सब पापों से निस्संदेह मुक्त हो जाता है।
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