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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय ४२

शिव, विष्णु, रुद्र और ब्रह्मा के स्वरूप का विवेचन

ऋषियोंने पूछा- शिव कौन हैं? विष्णु कौन हैं? रुद्र कौन हैं और ब्रह्मा कौन हैं? इन सबमें निर्गुण कौन है? हमारे इस संदेह का आप निवारण कीजिये।

सूतजीने कहा- महर्षियो! वेद और वेदान्त के विद्वान् ऐसा मानते हैं कि निर्गुण परमात्मा से सर्वप्रथम जो सगुणरूप प्रकट हुआ, उसी का नाम शिव है। शिव से पुरुष सहित प्रकृति उत्पन्न हुई। उन दोनोंने मूल-स्थान में स्थित जल के भीतर तप किया। वह स्थान पंचकोशी काशी के नाम से विख्यात है जो भगवान् शिव को अत्यन्त प्रिय है। यह जल सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त था। उस जल का आश्रय ले योगमाया से युक्त श्रीहरि वहाँ सोये। नार अर्थात् जल को अयन  (निवासस्थान) बनाने के कारण फिर 'नारायण' नाम से प्रसिद्ध हुए और प्रकृति 'नारायणी' कहलायी। नारायण के नाभि-कमल से जिनकी उत्पत्ति हुई, वे ब्रह्मा कहलाते हैं। ब्रह्मा ने तपस्या करके जिनका साक्षात्कार किया, उन्हें विष्णु कहा गया है। ब्रह्मा और विष्णु के विवाद को शान्त करने के लिये निर्गुण शिव ने जो रूप प्रकट किया, उसका नाम 'महादेव' है। उन्होंने कहा- 'मैं शम्भु ब्रह्माजी के ललाट से प्रकट होऊँगा' इस कथन के अनुसार समस्त लोकों पर अनुग्रह करने के लिये जो ब्रह्माजी के ललाट से प्रकट हुए, उनका नाम रुद्र हुआ। इस प्रकार रूपरहित परमात्मा सबके चिन्तन का विषय बनने के लिये साकाररूप में प्रकट हुए। वे ही साक्षात् भक्तवत्सल शिव हैं। तीनों गुणों से भिन्न शिव में तथा गुणोंके धाम रुद्र में उसी तरह वास्तविक भेद नहीं है जैसे सुवर्ण और उसके आभूषण में नहीं है। दोनों के रूप और कर्म समान हैं। दोनों समानरूप से भक्तों को उत्तम गति प्रदान करनेवाले हैं। दोनों समान रूप से सबके सेवनीय हैं तथा नाना प्रकार के लीला-विहार करनेवालेहैं। भयानक पराक्रमी रुद्र सर्वथा शिवरूप ही हैं। वे भक्तों के कार्य की सिद्धि के निमित्त विष्णु और ब्रह्मा की सहायता करने के लिये प्रकट हुए हैं। अन्य जो-जो देवता जिस क्रम से प्रकट हुए है उसी क्रम से लय को प्राप्त होते हैं। परंतु रुद्रदेव उस तरह लीन नहीं होते। उनका साक्षात् शिव में ही लय होता है। ये प्राकृत प्राणी रुद्र में मिलकर ही लय को प्राप्त होते हैं। परंतु रुद्र इनमें मिलकर लय को नहीं प्राप्त होते। यह भगवती श्रुति का उपदेश है। सब लोग रुद्र का भजन करते हैं, किंतु रुद्र किसी का भजन नहीं करते। वे भक्तवत्सल होने के कारण कभी-कभी अपने-आप भक्तजनों का चिन्तन कर लेते हैं। जो दूसरे देवता का भजन करते है वे उसी में लीन होते हैं; इसीलिये वे दीर्घकाल के बाद रुद्र में लीन होने का अवसर पाते हैं। जो कोई रुद्र के भक्त हैं वे तत्काल शिव हो जाते हैं; अत: उनके लिये दूसरे की अपेक्षा नहीं रहती। यह सनातन श्रुति का संदेश है।

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