ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
अध्याय ४१
मुक्ति और भक्ति के स्वरूप का विवेचन
ऋषियोंने पूछा- सूतजी! आपने बारंबार मुक्ति का नाम लिया है। यहाँ मुक्ति मिलने पर क्या होता है? मुक्ति में जीव की कैसी अवस्था होती है? यह हमें बताइये।
सूतजी ने कहा- महर्षियो! सुनो। मैं तुमसे संसारक्लेश का निवारण तथा परमानन्द का दान करनेवाली मुक्ति का स्वरूप बताता हूँ। मुक्ति चार प्रकार की कही गयी है-सारूप्या, सालोक्या, सांनिध्या तथा चौथी सायुज्या। इस शिवरात्रि-व्रत से सब प्रकार की मुक्ति सुलभ हो जाती है। जो ज्ञानरूप अविनाशी, साक्षी, ज्ञानगम्य और द्वैतरहित साक्षात् शिव हैं, वे ही यहाँ कैवल्यमोक्ष के तथा धर्म, अर्थ और काम रूप त्रिवर्ग के भी दाता हैं। कैवल्या नामक जो पाँचवीं मुक्ति है वह मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। मुनिवरो! मैं उसका लक्षण बताता हूँ, सुनो। जिनसे यह समस्त जगत् उत्पन्न होता है जिनके द्वारा इसका पालन होता है तथा अन्ततोगत्वा यह जिनमें लीन होता है वे ही शिव हैं। जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है वही शिव का रूप है। मुनीश्वरो! वेदों में शिव के दो रूप बताये गये हैं-सकल और निष्कल। शिवतत्त्व सत्य, ज्ञान, अनन्त एवं सच्चिदानन्द नाम से प्रसिद्ध है। निर्गुण, उपाधिरहित, अविनाशी, शुद्ध एवं निरंजन (निर्मल) है। वह न लाल है न पीला; न सफेद है न नीला; न छोटा है न बड़ा और न मोटा है न महीन। जहाँ से मनसहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है वह परब्रह्म परमात्मा ही शिव कहलाता है। जैसे आकाश सर्वत्र व्यापक है उसी प्रकार यह शिवतत्त्व भी सर्वव्यापी है। यह माया से परे, सम्पूर्ण द्वन्द्वों से रहित तथा मत्सरताशून्य परमात्मा है। यहाँ शिवज्ञान का उदय होने से निश्चय ही उसकी प्राप्ति होती है अथवा द्विजो! सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा शिव का ही भजन-ध्यान करने से सत्पुरुषों को शिवपद की प्राप्ति होती है।
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