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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


कामदेव: कामपालो भस्मोद्धूलितविग्रह:।
भस्मप्रियो भस्मशायी कामी कान्त: कृतागम:।।२१।।

१६४ कामदेव: - मनुष्यों द्वारा अभिलषित समस्त कामनाओं के अधिष्ठाता परमदेव, १६५ कामपाल: - सकाम भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले, १६६ भस्मोद्धूलितविग्रह: - अपने श्रीअंगों में भस्म रमाने वाले, १६७ भस्मप्रिय: - भस्म के प्रेमी, १६८ भस्मशायी - भस्म पर शयन करनेवाले, १६९ कामी - अपने प्रिय भक्तों को चाहनेवाले, १७० कान्त: - परम कमनीय प्राणवल्लभरूप १७१ कृतागम: - समस्त तन्त्रशास्त्रों के रचयिता।।२१।।

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा धर्मयुक्त: सदाशिव:।
अकल्मषश्चतुर्बाहुर्दुरावासो दुरासद:।।२२।।

१७२ समावर्तः - संसारचक्र को घुमाने वाले, १७३ अनिवृत्तात्मा - सर्वत्र विद्यमान होने के कारण जिनका आत्मा कहीं से भी हटा नहीं है ऐसे, १७४ धर्मयुक्त: - धर्म या पुण्य की राशि, १७५ सदाशिव: - निरन्तर कल्याणकारी, १७६ अकल्मष: - पापरहित, १७७ चतुर्बाहुः - चार भुजाधारी, १७८ दुरावासः - जिन्हें योगीजन भी बड़ी कठिनाई से अपने हृदयमन्दिर में बसा पाते हैं ऐसे, १७९ दुरासद: - परम दुर्जय।।२२।।

दुर्लभो दुर्गमो दुर्ग: सर्वायुधविशारद:।
अध्यात्मयोगनिलय: सुतन्तुस्तन्तुवर्धन:।।२३।।

१८० दुर्लभ: - भक्तिहीन पुरुषों को कठिनता से प्राप्त होनेवाले, १८१ दुर्गम: - जिनके निकट पहुँचना किसी के लिये भी कठिन है ऐसे, १८२ दुर्गः - पाप-ताप से रक्षा करने के लिये दुर्गरूप अथवा दुर्ज्ञेय, १८३ सर्वायुधविशारद: - सम्पूर्ण अस्त्रों के प्रयोग की कला में कुशल, १८४ अध्यात्मयोगनिलय: - अध्यात्मयोग में स्थित, १८५ सुतन्तुः - सुन्दर विस्तृत जगत्-रूप तन्तुवाले, १८६ तन्तुवर्धन: - जगत्-रूप तन्तु को बढ़ानेवाले।।२३।।

शुभाङ्गो लोकसारङ्गो जगदीशो जनार्दन:।
भस्मशुद्धिकरो मेरुरोजस्वी शुद्धविग्रह:।।२४।।

१८७ शुभाङ्गः - सुन्दर अंगोंवाले, १८८ लोकसारङ्ग: -लोकसारग्राही, १८९ जगदीश: - जगत्‌ के स्वामी, १९० जनार्दन: - भक्तजनों की याचना के आलम्बन, १९१ भस्मशुद्धिकर: - भस्म से शुद्धि का सम्पादन करनेवाले, १९२ मेरु: - सुमेरु पर्वत के समान केन्द्ररूप, ११३ ओजस्वी - तेज और बल से सम्पन्न, १९४ शुद्धविग्रह: - निर्मल शरीर वाले।।२४।।

असाध्य: साधुसाध्यश्च भृत्यमर्कटरूपधृक्।
हिरण्यरेता: पौराणो रिपुजीवहरो बली।।२५।।

१९५ असाध्य: - साधन-भजन से दूर रहनेवाले लोगों के लिये अलभ्य, १९६ साधुसाध्य: - साधन-भजन परायण सत्पुरुषों के लिये सुलभ, १९७ भृत्यमर्कटरूपधृक् - श्रीराम के सेवक वानर हनुमान्‌ का रूप धारण करनेवाले, १९८ हिरण्यरेता: - अग्निस्वरूप अथवा सुवर्णमय वीर्यवाले, १९१ पौराण: - पुरार्णो द्वारा प्रतिपादित, २०० रिपुजीवहर: - शत्रुओं के प्राण हर लेनेवाले, २०१ बली - बलशाली।।२५।।

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