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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


अजातशत्रुरालोक: सम्भाव्वो हव्यवाहन:।
लोककरो वेदकर: सूत्रकार: सनातन:।।१६।।

१२२ अजातशत्रु: - जिनके मन में कभी किसी के प्रति शत्रुभाव नहीं पैदा हुआ, ऐसे समदर्शी, १२३ आलोक: -प्रकाश स्वरूप, १२४ सम्भाव्य: - सम्माननीय, १२५ हव्यवाहन: - अग्निस्वरूप, १२६ लोककर: - जगत्‌ के स्रष्टा, १२७ वेदकर: -वेदों के प्रकट करने वाले, १२८ सूत्रकार: - ढक्कानाद के रूप में चतुर्दश माहेश्वर सूत्रों के प्रणेता, १२९ सनातन: -नित्यस्वरूप।।१६।।

महर्षिकपिलाचार्यो विश्वदीप्तिस्त्रिलोचन:।
पिनाकपाणिर्भूदेव: स्वस्तिद: स्वस्तिकृत्सुधी:।।१७।।

१३० महर्षिकपिलाचार्य: - सांख्यशास्त्र के प्रणेता भगवान् कपिलाचार्य, १३१ विश्वदीप्ति: - अपनी प्रभा से सबको प्रकाशित करनेवाले, १३२ त्रिलोचन: - तीनों लोकों के द्रष्टा, तीन नेत्र धारण करने वाले, १३३ पिनाकपाणि: - हाथ में पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, १३४ भूदेव: - पृथ्वी के देवता - ब्राह्मण अथवा पार्थिवलिंगरूप, १३५ स्वस्तिद: -कल्याणदाता, १३६ स्वस्तिकृत् - कल्याणकारी, १३७ सुधी: - विशुद्ध बुद्धिवाले।।१७।।

धातृधामा धामकर: सर्वग: सर्वगोचर:।
ब्रह्मसृग्विश्वसुक्सर्ग: कर्णिकारप्रिय: कवि:।।१८।।

१३८ धातृधामा - विश्व का धारण-पोषण करने में समर्थ तेजवाले, १३१ धामकर: - तेजकी सृष्टि करनेवाले, १४० सर्वग: - सर्वव्यापी, १४१ सर्वगोचर: - सब में व्याप्त, १४२ ब्रह्मसृक् - ब्रह्माजी के उत्पादक, १४३ विश्वसृक् - जगत् के सृष्टा, १४४ सर्ग: - सृष्टिस्वरूप, १४५ कर्णिकारप्रिय: - कनेर के फूल को पसंद करनेवाले, १४६ कवि: - त्रिकाल दर्शी ।।१८।।

शाखो विशाखो गोशाख: शिवो भिषगनुत्तम:।
गङ्गाप्लवोदको भव्य: पुष्कल: स्थपति: स्थिर:।।११।।

१४७ शाख: - कार्तिकेय के छोटे भाई शाखस्वरूप, १४८ विशाख: - स्कन्द के छोटे भाई विशाख स्वरूप अथवा विशाख नामक ऋषि, १४९ गोशाख: - वेदवाणी की शाखाओं का विस्तार करनेवाले, १५० शिव: - मंगलमय, १५१ भिषगनुत्तम: - भवरोग का निवारण करनेवाले वैद्यों (ज्ञानियों) में सर्वश्रेष्ठ, १५२ गङ्गाप्लवोदक: - गंगा के प्रवाहरूप जल को सिरपर धारण करनेवाले, १५३ भव्य: - कल्याणस्वरूप, १५४ पुष्कल: - पूर्णतम अथवा व्यापक, १५५ स्थपति: - ब्रह्माण्डरूपी भवन के निर्माता (थवई), १५६ स्थिर: - अचंचल अथवा स्थाणुरूप।।११।।

विजितात्मा विधेयात्मा भूतवाहनसारथि:।
सगणो गणकायश्च सुकीर्तिश्छिन्नसंशय:।।२०।।

१५७ विजितात्मा - मन को वश में रखनेवाले, १५८ विधेयात्मा - शरीर, मन और इन्द्रियों से अपनी इच्छा के अनुसार काम लेनेवाले, १५९ भूतवाहनसारथि: - पांचभौतिक रथ (शरीर ) का संचालन करनेवाले बुद्धिरूप सारथि, १६० सगण: - प्रमथगणों के साथ रहनेवाले, १६१ गणकाय: - गणस्वरूप, १६२ सुकीर्ति: - उत्तम कीर्तिवाले, १६३ छिन्नसंशय: - संशयों को काट देनेवाले।।२०।।

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