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शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

शंकरजी की कृपा से उसके एक सुन्दर सौभाग्यवान् और सद्‌गुण सम्पन्न पुत्र हुआ। घुश्मा का कुछ मान बढ़ा। इससे सुदेहा के मन में डाह पैदा हो गयी। समयपर उस पुत्र का विवाह हुआ। पुत्र वधू घर में आ गयी। अब तो वह और भी जलने लगी। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी और एक दिन उसने रात में सोते हुए पुत्र को छुरे से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके मार डाला और कटे हुए अंगों को उसी तालाब में ले जाकर डाल दिया, जहाँ घुश्मा प्रतिदिन पार्थिवलिंगों का विसर्जन करती थी। पुत्र के अंगों को उस तालाब में फेंककर वह लौट आयी और घर में सुखपूर्वक सो गयी। घुश्मा सबेरे उठकर प्रतिदिन का पूजनादि कर्म करने लगी। श्रेष्ठ ब्राह्मण सुधर्मा स्वयं भी नित्यकर्म में लग गये। इसी समय उनकी ज्येष्ठ पत्नी सुदेहा भी उठी और बड़े आनन्द से घर के काम-काज करने लगी; क्योंकि उसके हृदय में पहले जो ईर्ष्या की आग जलती थी, वह अब बुझ गयी थी। प्रातःकाल जब बहू ने उठकर पति की शय्या को देखा तो वह खून से भीगी दिखायी दी और उसपर शरीर के कुछ टुकड़े दृष्टिगोचर हुए, इससे उसको बड़ा दुःख हुआ। उसने सास (घुश्मा) के पास जाकर निवेदन किया-'उत्तम व्रत का पालन करनेवाली आर्ये! आपके पुत्र कहाँ गये? उनकी शय्या रक्त से भीगी हुई है और उसपर शरीर के कुछ टुकड़े दिखायी देते हैं। हाय! मैं मारी गयी! किसने यह दुष्ट कर्म किया है?' ऐसा कहकर वह बेटे की प्रिय पत्नी भांति-भांति से करुण विलाप करती हुई रोने लगी। सुधर्मा की बड़ी पत्नी सुदेहा भी उस समय 'हाय! मैं मारी गयी।' ऐसा कहकर दुःखमें डूब गयी। उसने ऊपर से तो दुःख किया, किंतु मन-ही-मन वह हर्ष से भरी हुई थी! घुश्मा भी उस समय उस वधू के दुःख को सुनकर अपने नित्य पार्थिव- पूजन के तप से विचलित नहीं हुई। उसका मन बेटे को देखने के लिये तनिक भी उत्सुक नहीं हुआ। उसके पति की भी ऐसी ही अवस्था थी। जबतक नित्य-नियम पूरा नहीं हुआ, तब तक उन्हें दूसरी किसी बात की चिन्ता नहीं हुई। दोपहर को पूजन समाप्त होने पर घुश्मा ने अपने पुत्र की भयंकर शव्या पर दृष्टिपात किया, तथापि उसने मन में किंचिन्मात्र भी दुःख नहीं माना। वह सोचने लगी- 'जिन्होंने यह बेटा दिया था, वे ही इसकी रक्षा करेंगे। वे भक्तप्रिय कहलाते हैं काल के भी काल हैं और सत्पुरुषों के आश्रय हैं। एकमात्र वे प्रभु सर्वेश्वर शम्भु ही हमारे रक्षक हैं। वे माला गूँथनेवाले पुरुष की भांति जिनको जोड़ते है उनको अलग भी करते हैं। अत: अब मेरे चिन्ता करने से क्या होगा।'

इस तत्त्व का विचार करके उसने शिव के भरोसे धैर्य धारण किया और उस समय दुःख का अनुभव नहीं किया। वह पूर्ववत् पार्थिव शिवलिंगों को लेकर स्वस्थचित्त से शिव के नामों का उच्चारण करती हुई उस तालाब के किनारे गयी। उन पार्थिव लिंगों को तालाब में डालकर जब वह लौटने लगी तो उसे अपना पुत्र उसी तालाब के किनारे खड़ा दिखायी दिया।

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