ई-पुस्तकें >> शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को शिवजी की आराधना करने की सम्मति दी। फिर व्यासजी ने भी आकर उन्हें शंकर के समाराधन का आदेश देते हुए कहा- 'शिवजी सम्पूर्ण दुःखों का विनाश करनेवाले हैं। वे भक्ति करने से थोड़े ही समय में प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिये सभी लोगों को शंकरजी की सेवा करनी चाहिये। वे महेश्वर प्रसन्न होने पर भक्तों की सारी अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं यहाँ तक कि वे इस लोक में सारा भोग और परलोक में मोक्षतक दे डालते हैं- यह बिलकुल निश्चित बात है। इसलिये भुक्ति-मुक्ति रूपी फल की कामना वाले मनुष्यों को सदा शम्भु की सेवा करनी चाहिये; क्योंकि भगवान् शंकर साक्षात् परम पुरुष, दुष्टों के संहारक और सत्पुरूषों के आश्रय-स्वरूप हैं। अब अर्जुन पहले दृढ़तापूर्वक शक्र विद्या का जप करें। तब इन्द्र पहले परीक्षा लेंगे, पीछे संतुष्ट हो जायँगे। प्रसन्न होने पर वे सर्वदा विघ्नों का नाश करते रहेंगे और फिर शिवजी का श्रेष्ठ मन्त्र प्रदान करेंगे।'
नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! इतना कहकर व्यासजी अर्जुन को बुलाकर उन्हें शक्रविद्या का उपदेश देने को उद्यत हुए, तब तीक्ष्णबुद्धि अर्जुन ने स्नान करके पूर्वमुख बैठकर उस विद्या को ग्रहण कर लिया। फिर उदारबुद्धि मुनिवर व्यासजी ने अर्जुन को पार्थिवलिंग के पूजन का विधान बतलाकर उनसे कहा।
व्यासजी बोले-'पार्थ! अब तुम यहाँ से परम रमणीय इन्द्रकील पर्वत पर जाओ और वहाँ जाह्नवी के तटपर बैठकर सम्यक्-रूप से तपस्या करो। यह विद्या अदृश्यरूप से सदा तुम्हारा हित करती रहेगी।' अर्जुन को ऐसा आशीर्वाद देकर व्यासजी पाण्डवों से कहने लगे- 'नृपश्रेष्ठो! तुम सब लोग धर्मपर दृढ़ बने रहो, इससे तुम्हें सर्वथा श्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त होगी; इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।'
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