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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! इस प्रकार मुनिवर व्यास उन पाण्डवों को आशीर्वाद दे तथा शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके तुरंत ही अन्तर्धान हो गये। उधर शिव-मन्त्र के धारण करने से अर्जुन में भी अनुपम तेज व्याप्त हो गया। वे उस समय उद्‌दीप्त हो उठे। अर्जुन को देखकर सभी पाण्डवों को निश्चय हो गया कि अवश्य ही हमारी विजय होगी; क्योंकि अर्जुन में विपुल तेज उत्पन्न हो गया है। (तब उन्होंने अर्जुन से कहा-)'व्यासजी के कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस कार्य को केवल तुम्हीं कर सकते हो, यह दूसरे के द्वारा कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता; अत: जाओ और हमलोगों का जीवन सफल बनाओ।' तब अर्जुन ने चारों भाइयों तथा द्रौपदी से अनुमति माँगी। उन लोगों को अर्जुन के विछोह का दुःख तो हुआ, पर कार्य की महत्ता देखकर सभी ने अनुमति दे दी। फिर तो अर्जुन मन-ही-मन प्रसन्न होते हुए उस उत्तम पर्वत (इन्द्रकील)को चले गये। वहाँ पहुँचकर वे गंगाजी के समीप एक मनोरम स्थान पर, जो स्वर्ग से भी उत्तम और अशोकवन से सुशोभित था, ठहर गये। वहाँ उन्होंने स्नान करके गुरुवर को नमस्कार किया और जैसा उपदेश मिला था, उसीके अनुसार स्वयं ही अपना वेष बनाया। फिर पहले मन-ही-मन इन्द्रियों का अपकर्ष करके वे आसन लगाकर बैठ गये। तत्पश्चात् सम सूत्र वाले सुन्दर पार्थिव शिवलिंग का निर्माण करके उनके आगे अनुपम तेजोराशि शंकर का ध्यान करने लगे। वे तीनों समय स्नान करके अनेक प्रकार से बारंबार शिवजी की पूजा करते हुए उपासना में तत्पर हो गये। तब अर्जुन के शिरोभाग से तेज की ज्वाला निकलने लगी। उसे देखकर इन्द्र के गुप्तचर भयभीत हो गये। वे सोचने लगे- यह यहाँ कब आ गया? पुन: उन्होंने ऐसा विचार किया कि यह घटना इन्द्र को बतला देनी चाहिये। ऐसा सोचकर वे तत्काल ही इन्द्र के समीप गये।

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