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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

अध्याय ३३-३८

शिवजी के किरातावतार के प्रसंग में श्रीकृष्ण द्वारा द्वैतवन में दुर्वासा के शाप से पाण्डवों की रक्षा, व्यासजी का अर्जुन को शक्रविद्या और पार्थिव पूजन की विधि बताकर तप के लिये सम्मति देना, अर्जुन का इन्द्रकील पर्वत पर तप, इन्द्र का आगमन और अर्जुन को वरदान, अर्जुनका शिवजी के उद्देश्यसे पुन: तप में प्रवृत्त होना

तदनन्तर पार्वती के विवाह प्रसंग में हुए जटिल, नर्तक तथा द्विज अवतारों की, फिर अश्वत्थामा-अवतार की बात कहकर नन्दीश्वरजी आगे कहते हैं- बुद्धिमान् सनत्कुमारजी! अब तुम पिनाकधारी भगवान् शिव के किरात नामक अवतार का वर्णन सुनो। उस अवतार में उन्होंने मूक नामक दैत्य का वध और प्रसन्न होकर अर्जुन को वर प्रदान किया था। जब सुयोधन ने महाबली पाण्डवों को (जूए में) जीत लिया, तब वे सती-साध्वी द्रौपदी के साथ द्वैतवन में चले आये। वहीं वे पाण्डव सूर्यद्वारा दी हुई बटलोई का आश्रय लेकर सुखपूर्वक अपना समय बिताने लगे। प्रियवर! उसी समय सुयोधन ने आदरपूर्वक मुनिवर दुर्वासा को छल करने के प्रयोजन से पाण्डवों के निकट जाने के लिये प्रेरित किया। तब महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों के साथ आनन्दपूर्वक वहाँ गये और पाण्डवों से मनोनुकूल भोजन की याचना की। तब उन सभी पाण्डवों ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दुर्वासा आदि तपस्वी मुनियों को स्नान करने के लिये भेजा। मुनीश्वर! इधर अन्नाभाव के कारण वे सभी पाण्डव बड़े संकट में पड़ गये और मन-ही-मन प्राण त्याग देने का विचार करने लगे। तब द्रौपदी ने श्रीकृष्ण का स्मरण किया। वे तत्काल ही वहाँ आ पहुँचे और शाक (के पत्ते) का भोग लगाकर उन सभी तपस्वियों को तृप्त कर दिया। फिर तो महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों को तृप्त हुआ जानकर वहाँ से चलते बने। इस प्रकार श्रीकृष्ण की कृपा से उस समय पाण्डव संकट से मुक्त हुए।

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