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शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव के विभिन्न अवतारों का विस्तृत वर्णन...

अध्याय १४-१५

शिवजी का शुचिष्मती के गर्भ से प्राकट्य, ब्रह्मा द्वारा बालक का संस्कार करके 'गृहपति' नाम रखा जाना, नारदजी द्वारा उसका भविष्य-कथन, पिता की आज्ञा से गृहपति का काशी में जाकर तप करना, इन्द्र का वर देने के लिये प्रकट होना, गृहपति का उन्हें ठुकराना, शिवजी का प्रकट होकर उन्हें वरदान देकर दिक्पाल पद प्रदान करना तथा अग्नीश्वरलिंग और अग्नि का माहात्म्य

नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! घर आकर उस ब्राह्मण ने बड़े हर्ष के साथ अपनी पत्नी से वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर विप्रपत्नी शुचिष्मती को महान् आनन्द प्राप्त हुआ। वह अत्यन्त प्रेमपूर्वक अपने भाग्य की सराहना करने लगी। तदनन्तर समय आनेपर ब्राह्मण द्वारा विधिपूर्वक गर्भाधान कर्म सम्पन्न किये जाने पर वह नारी गर्भवती हुई। फिर उन विद्वान् मुनि ने गर्भ के स्पन्दन करने से पूर्व ही पुंसत्व की वृद्धि के लिये गृह्यसूत्र में वर्णित विधि के अनुसार सम्यक्-रूप से पुंसवन-संस्कार किया। तत्पश्चात् आठवाँ महीना आनेपर कृपालु विश्वानर ने सुखपूर्वक प्रसव होने के अभिप्राय से गर्भ के रूप की समृद्धि करनेवाला सीमन्त-संस्कार सम्पन्न कराया। तदुपरान्त ताराओं के अनुकूल होनेपर जब वृहस्पति केन्द्रवर्ती हुए और शुभ ग्रहों का योग आया, तब शुभ लग्न में भगवान् शंकर, जिनके मुख की कान्ति पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान है तथा जो अरिष्टरूपी दीपक को बुझानेवाले, समस्त अरिष्टों के विनाशक और भू,भुव:, स्व: - तीनों लोकों के निवासियों को सब तरह से सुख देनेवाले हैं, उस शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। उस समय गन्धको वहन करनेवाले वायु के वाहन मेघ दिशारूपी बन्धुओं के मुखपर वस्त्र-से बन गये अर्थात् चारों ओर काली घटा उमड़ आयी। वे घनघोर बादल उत्तम गन्धवाले पुष्पसमूहों की वर्षा करने लगे। देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं। चारों ओर दिशाएँ निर्मल हो गयीं। प्राणियों के मनों के साथ-साथ सरिताओं का जल निर्मल हो गया। प्राणियों की वाणी सर्वथा कल्याणी और प्रियभाषिणी हो उठी। सम्पूर्ण प्रसिद्ध ऋषि-मुनि तथा देवता, यक्ष, किंनर, विद्याधर आदि मंगल द्रव्य ले-लेकर पधारे। स्वयं ब्रह्माजी ने नम्रतापूर्वक उसका जातकर्म-संस्कार किया और उस बालक के रूप तथा वेद का विचार करके यह निश्चय किया कि इसका नाम गृहपति होना चाहिये। फिर ग्यारहवें दिन उन्होंने नामकरण की विधि के अनुसार वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए उसका 'गृहपति' ऐसा नामकरण किया। तत्पश्चात् सबके पितामह ब्रह्मा चारों वेदों में कथित आशीर्वादात्मक मन्त्रों द्वारा उसका अभिनन्दन करके हंसपर आरूढ़ हो अपने लोक को चले गये। तदुपरान्त शंकर भी लौकिकी गति का आश्रय ले उस बालक की उचित रक्षा का विधान करके अपने वाहनपर चढ़कर अपने धाम को पधार गये। इसी प्रकार श्रीहरि ने भी अपने लोक की राह ली। इस प्रकार सभी देवता, ऋषि-मुनि आदि भी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थान को पधार गये।

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